SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "मेरी जीवनगाथा" के विषय में पूज्य श्री वर्णीजी के अभिमत मैं अपनी जीवनी लिम्वू इनकी कल्पना स्वप में मीनधी। इसमें रसा विधान है ही क्या अधिकतर दुसरेभाई इस जिस दुष्टि से देखते हैं उसमें मेरा कुछ भी प्राकेषणा नहीं है। नती में शोधक है और स्वतन्य विचारक ही हैं। मैं तो भगवान महावीरक महान् सिदान्तों का अनुयायी मात्र ह। मझ . उनके मार्गअनुसरण करने में जो मानन्दानुनी आता है। बहरचनातीतहे पतमेरीजीवनीको वियोमरव्या पन मिले यह मैं नहीं चाहता कुछभाईबहिनों ने रिस परिस्थिति उत्पन्न कर दी जिस समर इसके लिरवने के लिएवाध्यहोना पड़ा है यह दूसरी बात है। साया है इम से पाठकगमा मात्र मोरमार्ग की शिक्षा लेंगे फाल्गुन मुदि १५.स. २००५ गणमा वर्गी SAR Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy