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उन तक पहुँचनेके लिए योरोपको शायद एक शताब्दी लगेगी। यदि हम योरोपकी मानसिक गुलामीसे अपना पीछा छुड़ा सके तो दस वर्षों के अन्दर ही भारतीय मनोविज्ञानका अध्ययन कर इस क्षेत्रमें संसारकी एक बड़ी देन दे सकते हैं। परन्तु जो कुछ हो रहा है उससे तो यह जान पड़ता है कि अभी पचास वर्षतक हमारे विश्वविद्यालयों में वही पुराना विज्ञान पढ़ाया जावेगा। ई. सन् २००० के लगभग हमारे बच्चे वह ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे जो आज योरोपको मिल चुका है। तबतक योरोप और भी नये आविष्कार करेगा, जो हमें २०५० ई. में पढ़ाये जावेंगे। इस प्रकार हम सदा योरोपके शिष्य ही बने रहेंगे। अगर २०५० ई. में नये मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तोंको सुनकर कोई संस्कृत भाषाका पंडित भारतीय विद्वान् यह कहेगा कि ये सिद्धान्त तो हमारे कई हजार वर्ष पहलेसे लिखे हैं तो नयी सन्तति उसका मजाक करेगी।
आज हमारे राजनीतिक नेता हमें यह बता रहे हैं कि शीघ्र ही भारतवर्ष दुनियाँका नहीं, तो एशिया का नेता होनेवाला है। मैं अभी तक नहीं समझ पाया कि वह नेतृत्व हमें अपने किस गुणके बलपर प्राप्त होगा। हम अमरीकासे बढ़कर अणु-बम न बना पावेंगे। हम योरोपसे बढ़कर फौजी अनुशासन अपने सिपाहियोंको न सिखा सकेंगे। सच बात तो यह है कि मनुष्यको मृत्युके मुखमें ले जानेवाले साधनोंके आविष्कारमें हम भारतीय कभी पटु नहीं रहे। हमारे बाप-दादोंने तो हमें जीवनकी कला ही सिखायी है। हम एशिया ही नहीं समस्त विश्वका नेतृत्व कर सकते हैं यदि हम अपनी परम्पराके प्रति सच्चे रहे। आज सारा संसार द्वेषजनित युद्धाग्निमें जल रहा है। प्रेम और अहिंसाके द्वारा हम इस अग्निको बुझाकर संसारको शान्ति प्रदान कर सकते हैं। यही हमारी विशेषता और हमारा जातीयधर्म है। जैनियोंने अहिंसाको विशेष रूपसे अपना रक्खा है। यदि वे उसे केवल उपदेश तक ही सीमित न रख वर्तमान युगकी समस्योंके हल करने में उसकी उपयोगिता प्रमाणित करनेका भी प्रयास करें तो संसारके लिए प्रकाश-स्तंभ सिद्ध होंगें। जैन नवयुवकोंका यह कर्तव्य है कि वे मार्क्सवाद पढ़ने के बाद जैनदर्शनका भी अध्ययन करें। यदि वे सत्यके अन्वेषक हैं तो वह उन्हें घरमें ही प्राप्त हो जावेगा।
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