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३० : योगसार
पर्यायनिविषै अवत सम्यग्दृष्टी हू नांही उपजै है, अर व्रतीका तो कहा कहनां ।। ८८ ।
दोहा
अप्प - सरूवइ' जो रमइ' छंडिवि' सहुं सो सम्माइट्ठी हवइ लहुं पावई" अर्थ - जो आत्मस्वरूपविषै जो रमैं है समस्त व्यवहारकूं छोड़ि सो सम्यग्दृष्टी होय है, सो शीघ्र ही संसारका पारकूं प्राप्त होय है ॥ ८६ ॥
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दोहा
अजरु अमरु गुण-गण- लिउ जहिं अप्पा थिरु ठाइ' । सो कम्मेहिं ण बंधियज" संचिउ पुण्व विलाइ ॥ ९० ॥ अर्थ - जरा रहित, मरण रहित ज्ञानादिक गुण को निलय कहिए स्थानक असा जाकै आत्मा स्थिर होय ताकै नवीन कर्म नांही बंधे है अर पूर्वं संचय की कर्म विलय जाय है ।
भावार्थ- सम्यग्दृष्टी रागद्वेष रहित है, उदयागत कर्मफलकं भोगवे है, सुखविषै तो रागी नांही, दुःखविषै द्वेषी नांही, कर्मफलकूं जांनि समभावनि करि भोगवे है ॥ ६० ॥
दोहा
जो" सम्मत्त - पहाणु र बुहु" सो तइलोय पहाणु । केवलणाण वि लहु लहइ सासय सुक्ख णिहाणु ॥ ९११५ ।।
वबहारु । भवपारु ॥ ८९ ॥
अर्थ - सम्यक्त्व है प्रधान जाकै सो ही ज्ञानी है, सो जीव तीन लोकविष प्रधान है, ( सो ही शीघ्र केवलज्ञानकूं प्राप्त करै है ) अर सो ही सास्वत सुख - निधान होइ है ॥ ६१ ॥
१. सरूवहँ ( सरूवइ ) : आ० । २. जइ : मि० ।
८. थिर थाइ : मि० ।
८. कम्महिं : मि० ।
( मि० प्रतिमें 'रमइ' पद छूटा है ) १०. ण वि वंधियउ : मि० ।
३. छंडवि : मि० ।
४. पावहु : मि० ।
५. अजर अमर : मि० । ६. णिलहउ : मि० । ७. जिहिं : मि० ।
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११. ६१ : आ० ।
१२. सो : मि० ।
१३. समत - पहाण : मि० ।
सम्मत्त पहाण : आ० ।
१४. वुह : मि० ।
१५. ६० : आ० ।
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