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२२ : योगसार
अर्थ-जो शरीर रहित अमूर्तीक, असंख्यात प्रदेशी, परम चैतन्य, निज सुन्दर ज्ञानानन्द ज्ञानका पुंज, टंकोत्कोण असा सुन्दर निज शरोरकू जांणि; अर यह नर नारकादिक शरोरकू जड़ जांणि; अर मिथ्यात्व प्रकृति करि परचय' रूप मोहकू परित्याग करि अर बाह्य स्त्री त्यागि, अर मुक्ति रूप नितंबिनी जो स्त्री ताकू भोगि ॥ ६१ ॥
दोहा अप्प' अप्पु मुणंतयह किं' हा फलु होइ । केवलणाणु वि परिणवइ सासय सुक्खु लहेइ ॥ ६२ ॥ अर्थ-आत्मानं आत्म-स्वरूप करि अनुभवकर ताकै इहां कहा फल नांहो होइ है ? केवलज्ञान रूप परिणाम है अर सास्वता विनाश रहित नित्यानंदमय फल पावै है ॥ ६२ ॥
दोहा जे परभाव चएवि मुणि अप्पा अप्प मुणंति । केवलणाण सरूव लइ (लहि?) ते संसारु मुचंति ॥ ६३ ।
अर्थ-जो मुनि परभाव-जे रागद्वेष-काम-क्रोधादिक, मोहादिक विभावभाव तिनकू त्यागि करि अर आत्माकौं आत्मा करि जानें है, ते जोव केवलज्ञान-स्वरूप आत्मानै प्राप्त होय, कृतार्थ होय संसारकू छोड़े है ॥ ६३ ॥
दोहा धण्णा ते भयवंत बुह जे परभाव चयंति ।
लोयालोय-पयासयरु अप्पा विमल मुणंति ॥ ६४ ॥ ___ अर्थ--ते पुरुष हो धन्य हैं, अर ते ही भगवान हैं, अर ते ही बुध कहिए ज्ञानी हैं जे परभाव- रागद्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मान, माया, मोहादिक विभावभाव स्वभावतें परान्मुख तिनि भावनिकू त्याग है । सो पुरुष लोकालोक का प्रकाश करनहारा आत्माकू निर्मल जाण है, सो ही धन्य है ॥ ६४॥
१. अप्पय : मि० । २. कि : मि० । ३. फल : मि० । ४. होय : मि० । ५. सुक्ख : मि० ।
६. चऐव : मि० । ७. अप्पै : मि० । ८. लियइ : मि०। ६. संसार : मि०।
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