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योगसार : १५
चोपई
को सुसमाहि करउ को अंचउ, छोपु-अछोपु करिवि को वंचउ । हलसहि कलहु केण समाणउ, जहिँ जहिँ जोवउ तहिँ अप्पाणउ ॥४०॥
अर्थ-कौंन का समाधान करौं ? अर कौंनकू पूजूं ? अर छिपायबिना छिपाय कौंनकौं ठगौं ? अर उल्हास अर कलह कौंनसं करूं ? सर्व जीव चेतनां लक्षनपणां करि समान है। अर जहां-जहां देखूहूं तहां-तहां आत्मा ही है ॥ ४०॥
दोहा दोडा
ताम कुतित्थइँ परिभमइ धुत्तिम' ताम करेइ ।
गुरुहु पसाएँ जाम णवि अप्पा-देउ मुणेइ ॥४१॥ अर्थ-यह जीव जितनैं कुतीर्थनिविर्षे परिभ्रमण करै है, अर धूर्तताहू तितर्ने हो करै है। जितनैकू गुरुके प्रसाद बिनां देहविर्षे देव जो निजात्मा देवताकू नांहों जाणे है, तितनैं ही परिभ्रमण करै है ॥ ४१ ॥
दोहा तित्थहिँ देवलि देउ गवि इम सुइकेवलि वत्तु ।
देहादेवलु' देवु जिणु एहउ जाणि णिभंतु ॥ ४२ ॥ अर्थ- तीर्थ कहिए सिद्ध क्षेत्रादिक तीर्थस्थान तिनवि अर देहुराविर्षे देव जो आत्मा सो नाही है, जैसे सास्त्र वा केवली कह्या है। अथवा श्रुतकेवली कह्या है। देहरूप देहुराविर्षे जिनदेव है—या प्रकार भ्रांति रहित जांनिहु ॥ ४२ ॥
दोहा देहा-देवलि देउ जिणु जिणु देवलिहिँ णिएइ । हासउ महुपरि होइ' इहु सिद्धेष भिक्ख भमेइ ॥ ४३ ॥
१. का : मि० । २. हलसह : मि० । ३. लाह : मि० । ४. तह : मि० । ५. अप्पालउ : मि० । ६. धूत्तिम : मि०। ७. ( अप्पा ) देव : मि० ।
८. सुहकेवलि : मि० ।
६. देहादेवल : मि० । १०. ( देहा ) देवल : मि० । ११. जिण : मि० । जणु : आ० । १२. पडिहाइ : आ० । १३. सिद्ध : मि० ।
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