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________________ प्रस्तावना ने लिखा है कि-"योगीन्दु मुनि के परमात्मप्रकाश और योगसार की जो भाषा है उसे हम छठी शताब्दी की नहीं मान सकते हैं, क्योंकि उस भाषा में हिन्दी जैसा अत्यधिक सरलीकरण आ गया था। उन्होंने अपने इस कथन के समर्थन में योगसार से दो दोहे' उद्धत करते हये डॉ० कोछड़ के मत ( ईसा की आठवीं शती ) की पुष्टि की है। पं० ला० म. गांधी ने योगीन्दु को प्राकृत व्याकरण के रचयिता चंड से भी पुराना सिद्ध किया है।' उपर्युक्त के अतिरिक्त योगीन्दुदेव के समय पर विचार करने वाले विद्वानों में डॉ० ए० एन० उपाध्ये सर्वाग्रणी हैं। उन्होंने पूर्वापर सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुये जिस सूक्ष्मता एवं गहराई के साथ योगीन्दुदेव के समय पर तर्कपूर्ण शैली में विचार किया है, वह अत्यधिक वैज्ञानिक एवं महत्त्वपूर्ण है। डॉ० उपाध्ये ने योगीन्दुदेव के समय की अन्तिम अवधि पर विचार करते हुये जिन आठ तथ्यों का उल्लेख किया है, उनका सारांश इस प्रकार है १. षट्प्राभृत की संस्कृत टीका के रचयिता श्रुतसागर, जो ईसा की सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुये हैं, ने परमात्मप्रकाश से छह पद्य उद्धृत किये हैं। २. परमात्मप्रकाश पर मलधारी बालचन्द्र ने कनड़ी और ब्रह्मदेव ने संस्कृत में टीका लिखी है। उन दोनों का समय क्रमशः ईसा की चौदहवीं और तेरहवीं शताब्दी के लगभग है । ३. आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं के टीकाकार जयसेन, जिनका समय ईसा की बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के लगभग है, ने समयसार की टीका में १. चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर स्मृतिग्रन्थ, २/१८० । २. देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पणु ण होहिं । इउ जाणे विण जीव तुह अप्पा अप्प मुणेहि ॥ चउराशि लक्खहिं फिरउ कालु अणाई अणंतु। पर सम्मत्तु ण लद्ध जिय एहउ जाणि णिभंतु ॥ -वही, २/१८० । ३. वही, २/१८०-१८१। ४. अपभ्रंश काव्यत्रयी, भूमिका, पृ० १०२-१०३ । ( देखिए-हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ३४६, टिप्पण १)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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