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________________ सम्पादकीय अपभ्रंश की प्रमुख चार विधाओं में से उसकी आध्यात्मिक-साहित्य-विधा को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है । प्राच्यविद्याविदों ने उसे रहस्यवादी काव्य-विधा की संज्ञा प्रदान की है । प्रस्तुत योगसार ( जोयसारु ) संयोग से परमप्पयासु ( परमात्मप्रकाश ) के साथ ही साथ उक्त विधा की आद्य रचना के रूप में स्वीकृत एवं सम्मानित है । यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द ( प्रथम सदी ईस्वी ) एवं आचार्यं पूज्यपाद - देवनन्दि ( छठवीं सदी ईस्वी) का उक्त रचना पर प्रभाव परिलक्षित होता है, फिर भी योगसार की विषय- प्रतिपादन - शैली नवीन, मौलिक, मार्मिक, लोकभाषा में लिखित तथा सहजगम्य होने के कारण वह युगों-युगों से मुमुक्षुओं के गले का हार बना रहा है । यही नहीं, आचार्य हेमचन्द्र ( १२ वीं सदी ईस्वी ) द्वारा लिखित अपभ्रंश व्याकरण के पूर्व की रचना होने के कारण भी उक्त योगसार अपभ्रंश की प्रारम्भिक किन्तु स्वतन्त्र एवं सुव्यवस्थित रचना है । अतः वह अपभ्रंश साहित्य का आद्य गौरव ग्रन्थ है । इसी कारण से वह अपभ्रंश भाषा के उद्भव एवं विकास तथा उसके भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के लिए मूल स्रोत भी प्रदान करता है । एक ओर यह रचना लोकभाषा में पूर्वागत जैन रहस्यवाद के अध्ययन का द्वार उद्घाटित करती है तो दूसरी ओर आधुनिक भारतीय साहित्य की रहस्यवादी विचारधारा तथा हिन्दी की दूहा-शैली के उद्भव एवं विकास के अध्ययन के लिए भी बीज-सूत्र प्रदान करती है । योगसार का मुख्य विषय है- आत्म- रहस्य का विवेचन । उसमें निश्चयनय की दृष्टि से स्वात्म को परमात्मा के सदृश मानकर उसके एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने का उपदेश दिया गया है और स्वात्मानुभव को ही मोक्षमार्ग की संज्ञा प्रदान की गई है । समस्त रचना दूहा - शैली में ग्रथित है । प्रस्तुत योगसार के लेखक का नाम जोइंदु है । अनेक प्राचीन कवियों की भाँति जोइंदु भी अपने इतिवृत्त के विषय में मौन हैं, किन्तु अनेक प्रशंसकों एवं टीकाकारों ने उन्हें योगीन्द्रदेव ( ब्रह्मदेव, १३ वीं सदी ईस्वी ); योगीन्द्र देव भट्टारक ( श्रुतसागर, १६ वीं सदी ईस्वी ), योगीन्द्राचार्य ( पं० दौलतराम काशलीवाल, ईस्वी की १८ वीं सदी ) तथा योगीन्द्र मुनिराज ( मुंशी नाथूराम ईस्वी की २० वीं सदी) के रूप में स्मरण किया है । उन नामोल्लेखों में कवि मूल नाम के साथ 'इन्द्र', 'भट्टारक' एवं 'देव' विशेषण प्रशंसकों की केवल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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