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________________ ( ३० ) कहीं पर उपनिषदों की जैसी गम्भीर वाणी सुनाई देती है । परन्तु सच कहीं 'कल्याण' की छाया है । सन्तों की वाणियाँ सम्प्रदाय विशेष, मत विशेष और दुराग्रह से परे होती हैं। वर्णों-वाणी में भी वही विशेषता है। चाहे कोई इससे अपना जीवन सुखमय बना सकता है । कहीं रोड़ा नहीं है, घुमाव - फिराव भी नहीं है, ठोकर लगने का भय नहीं है ।' में श्री नरेन्द्रजी का यह प्रयत्न सर्वथा प्रशंसनीय है । सम्पादन उन्होंने बहुत परिश्रम किया है और सफल भी हुये हैं सन्त का आशीर्वाद उन्हें मिला ही होगा । मेरी और सन्त की क्या तुलना है । परन्तु एक अध्यापक एक छात्र को आशीर्वाद के अतिरिक्त और क्या दे सकने में समर्थ है ? शीवाद दे रहा हूँ कि श्री नरेन्द्रजी अपने जीवन में 'सफल' हों और सत् साहित्य की दिशा में उन्होंने जो पग रक्खा है वह अग्रगामी हो । काशीधाम २६ मार्च, १९४९ Jain Education International द्विजेन्द्रनाथ मिश्र साहित्याचाय, एम० ए० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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