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वर्णो-वाणी
पराधीनता-पृ० ३, वा०६, जीवन में स्वसे भिन्न पर पदार्थ के आलम्बन की अपेक्षा रहना हो पराधी ता है।
धर्म-पृ० ३, वा० १२ जीवन में आये हुए विकारों का त्याग करना या स्वभाव को ओर जाना ही धर्म है।
अरिहन्त-पृ०५, वा०२८, जिसने राग, द्वेष, मोह, अज्ञान और अदर्शन पर विजय प्रात कर जीवन्मुक्त दशा प्राप्त कर ली है वे अरिहन्त कहलाते हैं । इन्हें अरहन्त या अर्हत् भी कहते हैं।
वचन योग-पृ० ७, वा० ५३, योग का अर्थ क्रिया है । वचन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में जो क्रिया होती है उसे वचन योग कहते हैं।
पुद्गल-पृ० ७, वा० ५३, रूप, रस, गन्ध और स्पश वाला द्रव्य।
बन्ध-पृ०८, वा० ५३, परपरिणति के निमित्त से जीव के साथ अशुद्ध दशा के कारणभूत कर्मों का संयुक्त होना ही बन्ध है। परपरिणति दो प्रकार की होती है। पर में निजत्व को कल्पना करना प्रथम प्रकार की परपरिणति है और पर में रागादि भाव करना दूसरे प्रकार की परपरिणति है।
देव-पृ०८, वा० ५६, जीवन्मुक्त दशा को प्राप्त जीव ही देव हैं।
गुरु-पृ०८, वा०५६, जिसने बाह्य परिग्रह और उसकी मूर्छा इन दोनों को संसार का कारण जान इनका त्याग कर दिया है और जो स्वावलम्बन पूर्वक अपना जीवन बिताते हैं वे गुरु हैं।
भेदविज्ञान-पृ०८, वा०५६, शरीर और उसके कार्यों को जुदा अनुभव करना तथा आत्मा और उसके कार्यो को जुदा अनुभव करना भेदविज्ञान है।
शुभोपयोग-पृ०८, वा० ५६, देव, गुरु और शास्त्र आदि
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