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________________ ३०३ गागर में सागर मोह आदि अन्त विन बोध युत मोह सहित दुःख रूप । मोह नाश कर हो गया निर्मल शिवका भूप ॥४९॥ किसको अन्धा नहिं किया मोह जगत के बीच । किसे नचाया नाच नहिं कामदेव दुठ नीच ॥५०॥ जग में साथी दोय हैं आतम अरु परमात्म । और कल्पना है सभी मोह जनक तादात्म ॥५१॥ एकोऽहं की रटन से एक होय नहिं भाव । मोह भाव के नाश से रहे न दूजा भाव ॥५२।। मङ्गल मय मूरति नहीं जड़ मन्दिर के माँहिं । मोही जीवों की समझ जानत नहिं घट मांहि ॥५३।। परिग्रहपरिग्रह दुख की खान है चैन न इसमें लेश । इसके वश में हैं सभी ब्रह्मा विष्णु महेश ॥५४॥ रोकड़ ( पूँजी) जो रोकड़ के मोह बश तजता नाहीं पाप । सो पावहि अपकीर्ति जग चाह दाह सन्ताप ।।५।। रोकड़ ममता छाँडि जिन तज दीना अभिमान । कौड़ी नाहीं पास में लोग कहें भगवान ॥५६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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