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________________ वों-वाणी ३०२ परसङ्गतिसब से सुखिया जगत में होता है वह जीव । जो पर सङ्गति परिहरहि ध्यावे आत्म सदीव ॥४०॥ जो परसङ्गति को करहि वह मोही जग बीच । आतम अन्य न जानके डोलत है दुठ नीच ॥ ४१ ।। परका नेहा छोड़ दो जो चाहो सुख रीति । यही दुःख का मूल है कहती यह सद् नीति ॥४२॥ जो सुख चाहो जीव तुम तज दो पर का संग । नहिं तो फिर पछतावगे होय रंग में भंग ॥४३।। छोड़ो पर की संगति शोधो निज परिणाम । ऐसी ही करनी किये पावहुगे निजधाम ॥४॥ अन्य समागम दुखद है या में शंसय नहिं । कमल समागम के किये भ्रमर प्राण नश जाहि ॥१५।। रागभवदधि कारण राग है ताहि मित्र ! निरवार । या विन सब करनी किये अन्त न हो संसार ॥४६॥ राग द्वेष मय आत्मा धारत है बहु वेष । तिन में निजको मानकर सहता दुःख अशेष ॥४७|| जग में वैरी दोय हैं एक राग अरु दोष । इनही के व्यापार तें नहिं मिलता सन्तोष ॥४८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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