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भगवान् महावीर
हो रहा है उसे त्यागो; अनायास निज माग का लाभ हो जावेगा। त्यागना क्या वश की बात है ? नहीं, अपने ही परिगामों से सभी कार्य होते हैं।
"जब यह जीव स्वकीय भाव के प्रति पक्षी, भत, रागादि अध्यवसाय के द्वारा मोहित होता हुआ सम्पूर्ण पर द्रव्यों को आत्मा में नियोग करता है तब उदयागत, नरकगति आदि कर्म के वश, नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, पाप, पुण्य जो कर्मजनित भाव है उन रूप अपनी आत्मा को करता है। अर्थात् निर्विकार जो परमात्म तत्त्व है उसके ज्ञान से भ्रष्ट होता हुआ "मैं नारकी हूँ, मैं देव हूँ" इत्यादि रूप कर उदय में श्राये हुए कर्मजनित विभाव परिणामों की आत्मा में योजना करता है । इसी तरह धर्माधर्मास्तिभाव जीव, अजीव, लोक, अलोक ज्ञय पदार्थों को अध्यवसान के द्वारा उनकी परिच्छित्ति विकल्प रूप आत्मा को व्यपदेश करता है।
"जैसे घटाकार ज्ञान को घट ऐसा व्ययदेश करते हैं वैसे हो धर्मास्तिकाय विषयक ज्ञान को भी धर्मास्तिकाय कहना असंगत नहीं। यहाँ पर ज्ञान को घट कहना यह उपचार है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब यह आत्मा पर पदार्थोंको अपना लेता है तब यदि आत्म-स्वरूप को निज मान ले तब इसमें
आश्चर्य की कौन-सी बात है ? स्फटिकमणि स्वच्छ होता है और स्वयं लालिमा आदि रूप परिणमन नहीं करता किन्तु जब उसे रक्त स्वरूप परिणत जपापुष्प का सम्बन्ध हो जाता है तब वह उसके निमित्त से लालमादि रंग रूप परिणत हो जाता है। एतावता उसका लालिमादि रूप स्वभाव नहीं हो जाता। निमित्त के अभाव में स्वयं सहजरूप हो जाता है। इसी तरह आत्मा स्वभाव से रागादि रूप नहीं है परन्तु रागादि कर्म
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