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वर्णी-वाणी पर मैं नहीं होता। जैसे-आकाश के फूल नहीं होते वैसे ही तुम्हारो कल्पना मिथ्या है। सिद्धान्त तो यह है कि अध्यवसान के निमित्त से बँधते हैं और जो मोक्षमार्ग में स्थित है वह छूटते हैं तुमने क्या किया ? यथा तुमने क्या यह अध्यवसान किया कि इसको बन्धन में डालूँ और इसको बन्धन से छुड़ा दूं?नहीं अपि तु यहां पर-“एनं बंधयामि' इस क्रिया का विषय तो इस जीव को बन्धन में डालूं" और "एनं मोचयामि" इसका विषय-"इस जीव को बन्धन से मुक्त करा दूं" यह है। और उन जीवों ने यह भाव नहीं किये तब बह जीव न तो बँधे और न छूटे और तुमने वह अध्यवसान नहीं किया अपितु उन जीवों में एक ने सराग परिणाम किये और एक ने वीतराग परिणाम किये तो एक तो बन्ध अवस्था को प्रात्र हुआ और एक छूट गया। अतः यह सिद्ध हुआ कि पर में अकिंचित्कर होने से यह अध्यवसान भाव स्वार्थ क्रिया कारी नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि हम अन्य पदार्थ का न तो बुरा कर सकते हैं और न भला कर सकते हैं। हमारी अनादि काल से जो यह बुद्धि है कि "वह हमारा भला करता है, वह बुरा करता है, हम पराया भला करते हैं, हम पराया बुरा करते हैं, स्त्री पुत्रादि नरक ले जाने वाले हैं, भगवान स्वर्ग मोक्ष देने वाले हैं।" यह सब विकल्प छोड़ो। अपना जो शुभ परिणाम होगा वही स्वर्ग ले जाने वाला है और जो अपना अशुभ परिणाम होगा वही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है। परिणाम में वह पदार्थ विषय पड़ जावे यह अन्य बात है। जैसे ज्ञान में ज्ञेय आया इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञेय ने ज्ञान उत्पन्न कर दिया । ज्ञान ज्ञेय का जो सम्बन्ध है उसे कौन रोक सकता है ? तात्पर्य यह कि पर पदार्थ के प्रति राग द्वेष करने का जो मिथ्या अभिप्राय
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