SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७७ स्थितिकरण भङ्ग करने लगा। बाईजी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे गाल पर एक थप्पड़ मारा तथा बोलीं-"बेटा ! यह क्या करता है ? उसका कोई अपराध नहीं। वह तो स्वभाव से हिंसक है, उसका मुख्यतया मांस हो आहार है, तू क्यों दुःखी होता है ? तूने विवेकशून्य काम किया, उसका पश्चात्ताप करके प्रायश्चित्त करना चाहिये न कि पाप के भागी बनना चाहिये । मनुष्य को उचित है कि अपने पद के विरुद्ध कदापि कोई कार्य न करे। यही कारण है कि दयालु आदमी हिंसक जन्तुओं को नहीं पालते । अस्तु, भविष्य में ऐसा न करना । अथवा इसका यह अर्थ नहीं कि हिंसक जीवों पर दया हो न करना। जिस दिन वह बच्चा मर रहा था उस दिन तूने जो उसे दूध दिया, कोई बुरा काम नहीं किया परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उनके पालने का एक व्यसन बना लो। लोग औषधालय खोलते हैं, उसमें यह नियम नहीं होता कि कसाई को दवा नहीं देना चाहिये, देने वाले का अभिप्राय प्राणियों का रोग चला जाय, यही रहता है। रोग जाने के बाद वह क्या करेंगे, इस ओर दृष्टि नहीं जाती।" यह तो बाईजी का उपदेश था। अन्त में वह बिल्ली का बालक उस दिन से जहाँ मेरे को देखता था, भाग जाता था। और जब मैं भोजन करके अपने स्थान पर चला जाता था तब बिल्ली का बच्चा बाईजी के पास आकर बैठ जाता था और म्याऊँ-म्याऊँ करने लगता था। बाईजी उसे दूध में रोटी भिंग कर एक स्थान पर रख देती थीं। वह बच्चा खाकर चला जाता था। पश्चात् फिर दूसरे दिन भोजन के समय आकर वाईजी से रोटा लेकर खाता और चला जाता। जब बाईजी सागर से बरुआ सागर चली जाती थीं तब एक दिन पहले से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy