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वर्णी-वाणी
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में घट रूप अर्थ का बोध होता ही है। यद्यपि शब्द पर्याय अन्य है घट पर्याय अन्य है । घट शब्द का प्रत्यक्ष कर्ण इन्द्रिय से होता है और घटात्मक जो पृथ्वी की पर्याय है उसका प्रत्यक्ष चक्षु इन्द्रिय से होता है। अस्तु यहाँ पर जो धर्म के स्वरूप पर विचार हो रहा है वह क्या है ? मेरी समझ में तो यह आता है कि-"धर्म नामक पदार्थ या जिस शब्द से कहिये वह जो धर्मी नामक वस्तु है उससे अभिन्न है । अर्थात् धर्म अपने धर्मी से तीन काल में भिन्न नहीं हो सकता।" जैसे अग्नि में उष्ण धर्म है वह कभी भी अग्नि से पृथक् नहीं हो सकता। यदि उष्णता अग्नि से पृथक् हो जावे तो वह अग्नि ही न रह जावे । इसी तरह धर्म तीन काल में अपने धर्मी से भिन्न नहीं हो सकता । जैसे आत्मा का धर्म जीवत्व है उसका अस्तित्व तीनों कालों में आत्मा के साथ रहता है, उसी के द्वारा जीव पदार्थ की सत्ता है। उसके बिना जीव का अस्तित्व ही नहीं । यद्यपि "अस्तित्व गुण के बिना किसी पदार्थ का ज्ञान में भान ही नहीं होता" यह बात सर्व सम्मत है परन्तु अस्तित्व गुण साधारण है, सभी पदार्थों में पाया जाता है। उससे सामान्य बोध होता है। जीव अजीव की विशेष व्यवस्था नहीं बन सकती। अतः जीव अजीव की विशेष व्यवस्था के लिये असाधारण धर्म की
आवश्यकता है। तब जीव नामक जो पदार्थ है उसमें जीवत्व नामक एक ऐसा असाधारण धर्म है जिसके द्वारा उसे इम अजीब पदार्थों से भिन्न कर सकते हैं और जीवत्व नामक जो गुण या धर्म है वह जीव को जितनी भी अवस्थाएँ हैं सभी में पाया जाता है। चाहे जीव एकेन्द्रिय हो, चाहे विकलत्रय हो, चाहे असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय हो, चाहे संज्ञी पश्चेन्द्रिय हो, चाहे ब्राह्मण हो, चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो, चाहे शूद्र हो, चाहे गृहस्थ
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