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धर्म
इस संसार में जितने धर्म देखे जाते हैं उन सबका मूल कारण आत्मा की विभाव परिणति ही है । क्योंकि जब आत्मा में मोह का अभाव हो जाता है तब इसके न तो अनात्मीय पदार्थो में आत्मीय बुद्धि होती है और न राग द्वेष की ही उत्पत्ति होती है। जब अनात्मीय पदार्थों में आत्मीय बुद्धि होती है तब इसकी श्रद्धा मिथ्या रहती है और तब यह अनेक प्रकार के बिकल्प कर जगत् को अपनाने की कल्पना करता है। यद्यपि कोई अपना नहीं है, क्योंकि सब पदार्थों की सत्ता पृथक्-पृथक् है । परन्तु मिथ्या श्रद्धाके सहचार से इसका ज्ञान विपर्यय हो रहा है । जैसे कामला रोगवाला शंख को पीला मानता है इसी प्रकार यह भी अन्य पदार्थों में निजत्व की कल्पना करता है।
यदि यह संज्ञो हुआ और क्षयोपशम ज्ञानको विशेषता हुई तथा कषाय का मन्द उदय हुआ तो जानपने की विशेषता से इसके ऐसी इच्छा होती है कि यह ठाठ कहां से आया ? इसका मूल कारण क्या है ? तब ऐसी कल्पना करता है कि संसार में जो कार्य देखे जाते हैं उनका कोई न कोई बनानेवाला अवश्य है । वह सोचता है कि जैसे घट पट आदि पदार्थ बिना कुम्भकार या जुलाहा के नहीं बन सकते वैसे ही इतने बड़े जगत् का भी कोई न कोई बनानेवाला अवश्य होना चाहिये । जब यह
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