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________________ मेरी श्रद्धा __जो द्रव्य अपने निज द्रव्य में अथवा गुण में वर्तता है वह अन्य द्रव्य और उसके गुणरूप संक्रमण नहीं करता, पलटकर अन्य में नहीं मिल जाता, फिर वह अन्य द्रव्य को स्व स्वरूप कैसे परिणमा सकता है ? अर्थात् प्रत्येक द्रव्य का जो परिणमन है उस परिणमन का वही द्रव्य उपादान कारण होता है। ऐसा सिद्धांत होने पर भी मोह के उदय में जीव पर के उपकार को चेष्टा करता है। यदि परमार्थ से विचार करें तो उस कार्य के अन्तर्गत अपनो कषाय जन्य पीड़ा के दूर करने का अभिप्राय ही पाया जायेगा। इस विषय में बहुत लिखने को आवश्यकता नहीं । सर्वसाधारण को यह अनुभूत है-"जो हम करते हैं उसके अन्तर्गत हमारी बलवती इच्छा ही कारण पड़ती है अतः हमको अन्तरङ्ग से यह भाव पृथक् कर देना उचित है कि हम परोपकार करते हैं । केवल हमको जो कषाय उत्पन्न होती है उसको पीड़ा सहने को हम असमर्थ रहते हैं अतः उसका दूर करना हमारा लक्ष्य है । इस प्रकार की श्रद्धा करने से हम कर्तृत्व-बुद्धि से, जो कि संसार बंधन का कारण है-बच जावेंगे।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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