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संसार
देखी गई हैं और शरीर जो है वह आत्मा का संसार है। इसलिये जो जीव मुक्ति के लिये जाति का आग्रह मान रहे हैं वे संसार से नहीं छूट सकते ।" न तो जाति बन्ध का कारण है और न मुक्ति का कारण है, क्योंकि जाति का होना पर-द्रव्याधीन है। मोक्ष के लिये जाति या वेष आवश्यक नहीं___ "ब्राह्मणत्व जाति-मोक्ष का मार्ग न हा, किन्तु ब्राह्मणत्व जाति-विशिष्ट जीव निर्वाण दोक्षा के द्वारा दीक्षित होने पर मुक्ति को प्रात कर लेता है" ऐसा जो कहते हैं उनके प्रति पूज्यपाद स्वामी का कहना है
"जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः ।
तेऽपि न प्राप्नवन्त्येव परमं पदमात्मनः ।।" । अर्थात् जाति और वेष के विकल्प से मुक्ति मानने वाले जो लोग कहते हैं कि ब्राह्मणत्व जाति विशिष्ट होने के बाद जब दैगम्बरी दीक्षा धारण करेगा तभी मुक्ति का पात्र होगा। वे मनुष्य भी परम पद को प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि जाति
और वेष पराश्रित हैं। वे मोक्ष-प्राप्ति में साधक-बाधक नहीं। एकमात्र आत्माश्रित भाव ही मोक्ष का कारण हो सकता है। श्री कुन्दकुन्द स्वामो ने समयसार में लिखा है
"पासंडी लिङ्गाणि व गिहिलिङ्गाणि व वहुप्पयाराणि । घित्तुं वदति मूढा लिङ्गमिणं मोक्खमग्गो त्ति । ण उ होदि मोक्खमग्गो लिङ्गं जं देहणिम्ममा अरिहा । लिङ्ग मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि से यति ।।"
पाखण्डी लिङ्ग अथवा गृहस्थ लिङ्ग, ये बाह्य लिङ्ग हैं जो बहुत प्रकार के हैं। उन्हें ग्रहण कर मूढ लोग मानते हैं कि यह
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