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संसार
मोक्ष
जैसा कि पहले बतला आये हैं कि रागादिक द्वारा हमारी आत्मा में जो आकुलता होती है उसी का नाम दुःख है । उस दुःख को कोई नहीं चाहता परन्तु जब यह दुःख रूप अवस्था होती है उस समय हम व्याकुल रहते है किसी भी विषय में उपयोग नहीं लगता, चित यही चाहता है कि कब यह संकट टले । इसका अर्थ यही है कि यह विषय ज्ञान में न आवे परन्तु मोही जीव पर्याय-दृष्टिवाले हैं उनसे यह होना असम्भव है। यदि इष्ट वियोग हो गया तब वही ज्ञान का विषय होता है । विषय होना मात्र दुःख का कारण नहीं उसके साथ जो मोह का सम्बन्ध है वही दुःख का कारण है। बाह्य वस्तु का वियोग न तो दुःख का कारण है और न उसका संयोग सुख का कारण है। केवल कल्पना से ही सुख और दुःख मान लेता है । अतः सुख और दुःख आप ही परमार्थ से दुःखरूप हैं। जिस वस्तु के संयोग से हमें हर्ष होता है उसे हम सुख का कारण मान लेते हैं और उसी वस्तु के वियोग से दुःख मान लेते हैं, तथा जिस वस्तु के संयोग से चितमें विकार होता है उसे हम दुःख का कारण मान लेते हैं और उसी वस्तु के वियोग से सुख मान लेते हैं । यह काल्पनिक मान्यताहमारे मोहोदय से होती है वस्तु न सुखदाई है और न दुःखदाई है क्योंकि जिस वस्तु के संयोग से हम सुख होना मानते हैं उसी वस्तुका संयोग दूसरों को दुःख दायी होता है । अतः सिद्ध है कि पदार्थ सुखदाई या दुःखदाई नहीं अपितु हमारी कल्पना ही सुखदाई और दुःखदाई है। इसलिये पदार्थों को इष्टानिष्ट मानना मिथ्या है । हमें आत्मीय परणति में जो मिथ्या कल्पना है उसे त्याग देना आवश्यक है । जिस दिन हमारी मान्यता इन विकल्पों से मुक्त
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