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समाधिमरण
मोह के निमित्त से ही आत्मा में एक पदार्थ को जान कर दूसरा पदार्थ जानने की इच्छा होती है। जिसके मोह निकल जाता है उसे एक आत्मा ही आत्मा का बोध होने लगता है. उसकी दृष्टि बाह्य ज्ञेय की ओर जातो ही नहीं है ऐसी दशा में आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा के लिए आत्मा से आत्मा में ही जानने लगता है । एक आत्मा ही षट्कारक रूप हो जाता है। सीधी बात यह है कि उसके सामने से कर्ताकर्म करणादि का विकल्प हट जाता है ।
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७. चेतना यद्यपि एक रूप है फिर भी वह सामान्य विशेष के भेद से दर्शक ओर ज्ञान रूप हो जाता है । जब कि सामान्य और विशेष पदार्थ मात्र का स्वरूप है तब चेतना उसका त्याग कर सकती है । यदि वह उसे भी छोड़ दे तब तो अपना अस्तित्व ही खो बैठे और इस रूप में वह जड़ रूप हो आत्मा का भी अन्तकर दे सकती है इसलिए चेतना का द्विविध परिणाम होता ही है। हाँ चेतना के अतिरिक्त अन्य भाव आत्मा के नहीं हैं। इसका अर्थ यह नहीं समझने लगना कि आत्मा में सुख वीर्य गुण नहीं है । उसमें तो अनन्त गुण विद्यमान हैं और हमेशा रहेंगे। परन्तु अपना और उन सबका परिचायक होने से मुख्यता चेतना को ही दी जाती है । जिस प्रकार पुद में रूप रसादि गुण अपनी अपनी सत्ता लिये हुए विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार आत्मा में भी ज्ञान दर्शन आदि अनेक गुण अपनी अपनी सत्ता को लिये हुये विद्यमान रहते हैं । इस प्रकार चेतनातिरिक्त पदार्थों को पर रूप जानता हुआ ऐसा कौन बुद्धिमान है जो कहे कि ये मेरे हैं । शुद्ध आत्मा को जानने वाले के ये भाव तो कदापि नहीं हो सकते ।
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