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६ - व्यक्तियों के जीवन में आई हुई कमजोरी के आधार से किये गये समझौते के फलस्वरूप राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था की जाती है। पूर्ण स्वावलम्बन की दिशा में जो व्यक्ति प्रगति करना चाहते हैं उनके मार्ग में ये व्यवस्थाएँ बाधक ही हैं साधक नहीं।
७ - कर्म इन व्यवस्थाओं का कारण नहीं । किन्तु इन व्यवस्थाओं का मुख्य आधार जोव के अशुद्ध परिणाम हैं । जीव के अशुद्ध परिणाम कर्म के निमित्त से होते है और वे परिणाम इन व्यवस्थाओं में कारण पड़ते हैं इतना अवश्य है। कर्म का वही स्थान है जो अन्य निमित्तों का है।
८. सब व्यवस्थाओं का मूल आधार सहयोग और समानता है। आजीविका के साधन कुछ भी रहें उनसे समानता में बाधा नहीं आती।
९-जीवन संशोधन का मूल आधार स्वावलम्बन है। परावलम्बी जीवन त्रिकाल में निर्मलता की ओर अग्रेसर नहीं हो सबता।
ये वे सिद्धान्त हैं जो उनके उपदेशो से फलित होते हैं । इनकी परम्परा में आज तक जो अगणित सन्त महापुरुष हुए है उन्होंने भी उनकी इस दिव्य बाणी को दोहराया है और व्यक्तिस्वातन्त्र्य के मार्ग को प्रशस्त किया हैं। पूज्य श्री वर्णीजी महाराज उन सन्तो में से एक हैं जिनकी पुनीत दिव्यवाणी का लाभ हम सबको हो रहा है। इस पुस्तक में उनकी वही दिव्य वाणी ग्रथित की गई है। यह प्रायः उनके उपदेशों और लेखों के मूल वाक्य लेकर संगृहीत की गई है। इसमें उन त्रिकालाबाधित तत्वों का निर्देश है जिनकी विश्व को सदा काल आवश्यकता बनी रहेगी।
जैसा कि हम पहले लिख आये हैं कि इस समय भौतिकवाद और ईश्वरवाद का गहरा संघर्ष है। एक ओर भौतिक समाजवाद अपनी जड़ें पक्की कर रहा है। उसका सबसे मोटा यह सिद्धान्त है कि जगत्
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