________________
स्वाधीनता १. आप को यह अनुभब से मानना पड़ेगा कि मोक्षमार्ग स्वतंत्रता में है। हम जो भी कार्य करते है उसमें स्वतंत्र है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण का दिव्य उपदेश है कि “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" सो इसका यही अर्थ है कि तभी बन्धन से छूटोगे जब निष्पृह होकर कार्य करोगे। दूसरा यह भी तत्त्व इससे निकलता है कि बन्ध की जनक इच्छा ही है और वही संसार की जननी है।
२. स्वाधीनता ही एक ऐसा अमोघ मन्त्र है जिससे हम सदा सुखी रह सकते हैं क्योंकि यह पराधीनता तो ऐसा प्रबल रोग है जो संसार से मुक्त नहीं होने देता । अतः चाहे भले ही वन में रहो यदि इसके वश में हो तब तो कुछ सार नहीं । यदि इसपर विजय प्रात कर लो तब कहीं भो रहो पौबारा है ।
३. जब तक अपनी स्वाधीनता की उपासना में तल्लीन न होओगे, कदापि कर्मजाल से मुक्त न हो सकोगे।
४. मार्ग में स्वतंत्रता ही मुख्य है पराधीनता तो मोक्ष में बाधक है।
५. इस पराधीनता को पृथक् कर स्वाधीन बनो आप ही शान्ति के पात्र हो जाओगे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org