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सुख
१. निर्मोही जीव ही सुख के भाजन होते हैं । मोही जीव सदा दुखी रहते हैं, उन्हें सुख का मार्ग समशरण में भी नहीं मिल सकता।
२. मूर्छा में जितनी घटी होगी उतना ही आनन्द मिलेगा।
३. बहुत से लोग कहा करते हैं कि संसार तो दुःख रूप ही है, इसमें सुख नहीं । परन्तु यदि तत्त्व दृष्टि से इस विषय पर विचार विमर्श किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि यदि संसार में दुःख ही है तब क्या यह नित्य वस्तु है ? नहीं, क्योंकि दुःख पर्याय का विध्वंस देखा जाता है और प्रयास भी प्राणियों का प्रायः निरन्तर दुःख दूर कर सुखी होने का रहता है। अतः सिद्ध है कि यह वस्तु (दुःख) अस्थायी है । अतः "संसार में दुःख है" इसका यही आशय है कि आत्मा के आनन्द नामक गुण में मोहज भाव द्वारा विकृति आ गई है। वही आत्मा को दुःखात्मक वेदना कराती है । जैसे कामला रोगी को सफेद शंख भी पीला प्रतीत होता है, वास्तव में पोला नहीं, उसी तरह मोहज विकार में आत्मा दुःखमय प्रतीत होता है, परमार्थ से दुखी नहीं अपितु सुखी ही है ।
४. संयम से रहना ही सुख और शान्ति का सत्य उपाय है।
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