________________
धैर्य
५९
तब आपको धार्मिक कार्यों से विमुख नहीं होना चाहिये तथा विद्रोहियों के आरोप से उनके प्रति क्षुब्ध नहीं होना चाहिये । प्रत्युत आपत्तियों के आने पर धीरता के साथ पहले की अपेक्षा अधिक प्रयास उस कार्य को सफल बनाने का करना चाहिए इसी में भलाई है ।
७. उतावली न करो धैर्य तुम्हारा कार्यसाधक है ।
८. केवल वर्तमान परिणाम से उद्वेजित होकर अधीरता से काम मत करो, सम्भव है अधीरता से उत्तर काल में गिर जाओ ।
६. विपत्ति के समय धीरता ही उपयोगिनी है । यद्यपि उस समय धैर्य्य धारण करना कठिन प्रतीत होता है परन्तु जो साहस से कार्य करते हैं उन्हें सभी विपत्तियाँ सरल हो जाती हैं ।
१०. चित्त में धीरता गुण है तो कल्याण अवश्य होगा ।
११. अधीर होकर हो मनुष्य अधिक दुःख के पात्र बनते हैं और उस अधीरता के द्वारा अपनी शक्ति को क्षीण करते करते जब एक दिन एकदम निर्बल हो जाते हैं तब कोई कार्य करने के योग्य नहीं रहते, निरन्तर संक्लेश परिणाओं की प्रचुरता से दुःख ही दुःख का स्वप्न देखते रहते हैं ।
१२. धीरता ही सब कार्यों का साधक है । अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त की गई धीरता ही ध्यान में सहकारी होती है । इसके बिना चित्त व्यग्र रहता है और जिसका चित्त व्यग्र है वह एक ज्ञेय में चित्त को स्थिर करने में असमर्थ हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org