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कर्तव्य
१. मन में जितने विकल्प पैदा होते हैं उनमें से यदि सहस्रांश भी कार्य रूप में परिणत कर लिए जायँ तो समझो कर्तव्यशीलता के सम्मुख हो गये। __२. जो कर्तव्यपरायण होते हैं वे व्यर्थ विकल्प नहीं करते ।
३. यदि कर्तव्य की गाड़ी लाइन पर आ गई तो समझो अभीष्ट नगर पास है।
४. स्वयं सानन्द रहो, दूसरों को कष्ट मत पहुंचानो, जीवन को सार्थक बनाओ यही मानव जीवन का कर्त्तव्य है।
५. यह जीव आज तक निमित्त कारणों की प्रधानता से ही आत्म-तत्त्व के स्वाद से वञ्चित रहा। अतः स्व की ओर ही दृष्टि रखकर श्रेयोमार्ग की ओर जाने की चेष्टा करना मुख्य कर्तव्य है।
६. महर्षियों या आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट पथ का अनुसरण कर और अपनी मनोवृत्ति को स्थिर कर स्वार्थ या प्रान्मा की सिद्धि करना मनुष्यों का कर्तव्य होना चाहिये ।
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