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________________ lvii १०६ १५० १०७-१०८ १५०-१५२ १०९-११२ १५२-१५४ ११३-११५ १५४-१५५ ११६-१२० १५६-१५७ १२१-१२५ १५७-१५९ १२६ १५९-१६० १२७ १६०-१६१ विषय-सूची उपचार कथन का दृष्टान्त द्वारा प्रतिपादन व्यवहार का कथन दृष्टान्त सहित कर्मबन्ध के कारण जीव और प्रत्ययों में एकपन का निषेध पुद्गलद्रव्य ही कर्मरूप परिणमन करता है जीव के परिणामस्वभाव का समर्थन आत्मा जिस भाव को करता है उसी का कर्ता होता है ज्ञानमयभाव और अज्ञानमयभाव के कार्य ज्ञानी के ज्ञानमयभाव और अज्ञानी के अज्ञानमयभाव क्यों होता है? उक्त बात का दृष्टान्त द्वारा समर्थन । अज्ञानमयभाव द्रव्यकर्म के हेतु किस प्रकार होते हैं? जीव का परिणाम पुद्गल से पृथक् ही है पुद्गलद्रव्य का परिणाम जीव से पृथक् है कर्म की बद्ध और स्पृष्ट दशा का नयविवक्षा से वर्णन नयपक्षों का वर्णन पक्षातिक्रान्त पुरुष का स्वरूप पक्षातिक्रान्त ही समयसार है पुण्यपापाधिकार संसार में प्रवेश करने वाला कर्म सुशील कैसे हो सकता है? सुवर्ण और लोहे की बेड़ी के दृष्टान्त द्वारा उक्त बात का समर्थन कुशील के संसर्ग और राग से विनाश होना निश्चित है दृष्टान्तपूर्वक कुत्सित शील-कर्म को छोड़ने की प्रेरणा राग बन्ध का कारण है और विराग मोक्ष का कारण है ज्ञानस्वभाव में स्थित मुनि मोक्ष प्राप्त करते हैं परमार्थ में स्थित हुए बिना तप और व्रत, बालतप तथा बालव्रत है परमार्थ से बाहिर मनुष्य व्रतादि धारण करते हुए भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होते परमार्थ से बाह्य मनुष्य अज्ञान से पुण्य चाहते हैं मोक्षपथ का वर्णन - मोक्ष का वास्तविक कारण परमार्थ का आश्रय करने वाले मुनियों के ही कर्मक्षय होता है १२८-१२९ १६१-१६२ १३०-१३१ १६२-१६३ १३२-१३६ १६३-१६४ १३७-१३८ १६४-१६५ १३९-१४० १६५-१६६ १४१ १६६ १४२ १६६-१७५ १४३ १७५-१७६ १४४ १७६-१८१ १४५ १८३-१८४ १४६ १८४-१८५ १४७ १८५ १४८-१४९ १८५-१८६ १५० १८६-१८७ १५१ १८७-१८८ १५२ १८८ १५३ १८८-१९० १५४ १९०-१९१ १५५ १९१ १५६ १९२-१९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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