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________________ विषय-सूची ३१ ६०-६२ ६२-६३ ६३-६५ ६५-६६ ६६-६७ ६८-७० ७०-७१ ७१-७४ ३७ ३८ ३९-४३ जितेन्द्रिय का लक्षण (निश्चय-स्तुति) जितमोह का लक्षण (निश्चय-स्तुति) क्षीणमोह का लक्षण (निश्चय-स्तुति) ज्ञान ही प्रत्याख्यान है ज्ञाता के प्रत्याख्यान में दृष्टान्त मोह से निर्ममत्व का लक्षण धर्म आदि से आत्मा की निर्ममता का वर्णन परमाणुमात्र भी परद्रव्य मेरा नहीं है। मिथ्यावादी जीवों के द्वारा आत्मा की नाना प्रकार से मान्यता ये सब भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं आठ प्रकार के कर्म पुद्गलमय हैं अध्यवसानभाव जीव के हैं ऐसा व्यवहारनय का कथन है दृष्टान्त द्वारा व्यवहार नय के कथन का समर्थन आत्मस्वरूप वर्ण, गन्ध, रस आदि से जीव की पृथक्ता का वर्णन वर्णादिक, व्यवहार से जीव के हैं, निश्चय से नहीं मार्ग का दृष्टान्त देकर उक्त बात का समर्थन संसारी जीवों के वर्णदिक हैं, मुक्त जीवों के नहीं । वर्णादिक को जीव के मानने पर आपत्ति का प्रदर्शन संसारी जीव के वर्णादिक मानने पर उनके रूपी होने का प्रसंग आता है पुद्गलमयी कर्मप्रकृतियों से रचे गये जीवस्थान जीव के कैसे हो सकते हैं? पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर ये सब व्यवहार से संज्ञाएँ हैं. मोहकर्म के उदय से होने वाले गुणस्थान जीव के कैसे हो सकते हैं? कर्तृकर्माधिकार आत्मा और आस्रव का अन्तर नहीं समझना ही बन्ध का कारण है कर्तृ-कर्मप्रवृत्ति का अभाव कब होता है? इसका उत्तर ज्ञानमात्र से बन्ध का निरोध किस तरह होता है? इसका उत्तर आस्रव से आत्मा की निवृत्ति होने का उपाय ४४ ४५ ४६ ४७-४८ ४९ ५०-५५ ५६-५७ ५८-६० ६१ ६२ ६३-६४ ७५-७७ ७८-८१ ८१ ८२-८४ ८४-८५ ८५-८८ ८८-९२ ९२-९४ ९५ ९६ ९६ ९७-९८ ६५-६६ ६७ ९९-१०० ६८ १०१-१०६ ६९-७० १०७-१०८ ७१ १०८-१०९ ७२ १०९-१११ ७३ १११-११२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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