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विषय-सूची
गाथा
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६-९ १०-११ ११-१२ १२-१४ १४-१७ १७-१८ १९-२० २०-२२ २२-२३ २३-२७ २८-३५ ३५-४०
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मङ्गलाचरण जीवाजीवाधिकार स्वसमय और परसमय का लक्षण एकत्व की कथा सुन्दर और बन्ध की कथा विसंवादिनी एकत्व विभक्त आत्मा की प्राप्ति सुलभ नहीं है एकत्व विभक्त आत्मा को दिखलाने की प्रतिज्ञा ज्ञायकभाव न अप्रमत्त है, न प्रमत्त है, किन्तु शुद्ध है दर्शन, ज्ञान और चारित्र का विकल्प व्यवहार से है व्यवहार के बिना उपदेश अशक्य है परमार्थ और व्यवहारनय से श्रुतकेवली का स्वरूप व्यवहारनय अभूतार्थ और शुद्धनय-निश्चयनय भूतार्थ है शुद्धनय और व्यवहारनय से किसे उपदेश देना चाहिए भूतार्थनय से जीवाजीवादि का जानना सम्यक्त्व है शुद्धनय का स्वरूप शुद्धनय से आत्मा को जाननेवाला समस्त जिनशासन को जानता है साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सेवा करनी चाहिये मोक्ष के इच्छुक मनुष्य को जीवरूपी राजा की सेवा करनी चाहिए जीव अप्रतिबुद्ध कब तक रहता है अज्ञानी जीव आत्मा के विषय में कैसे विकल्प करता है अप्रतिबुद्ध - अज्ञानी जीव को समझाने का उपाय अप्रतिबुद्ध जीव कहता है कि शरीर ही आत्मा है अप्रतिबुद्ध जीव के पूर्वपक्ष का उत्तर अज्ञानी, शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति मानता है केवली के गुणों का स्मरण ही निश्चय से उनका स्तवन है शरीर के स्तवन से आत्मा की स्तुति नहीं होती, दृष्टान्त सहित निरूपण
४०-४२
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४५-४७ ४७-५० ५०-५२ ५२-५६
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