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________________ परिशिष्ट ४६९ गाथा गाथा अपेक्षा दो प्रकार का है। एकदेशत्याग को समयप्राभृत अणुव्रत और सर्वदेशत्याग को महाव्रत जीव का निरूपण करनेवाला शास्त्र अथवा कहते हैं। समस्त पदार्थों का सार-जीवतत्त्व। व्याप्य-व्यापकभाव ७५ समिति २७३ जिसमें व्याप्त हुआ जावे उसे व्याप्य और प्रमादरहित प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। जो व्याप्त हो उसे व्यापक कहते हैं जैसे इसके पाँच भेद हैं-१. ईर्या, २. भाषा, ३. मिट्टी का घड़ा। यहाँ घड़ा व्याप्य है और एषणा, ४. आदाननिक्षेपण और ५. मिट्टी व्यापक है। यह व्याप्य-व्यापकभाव प्रतिष्ठापन। एक ही द्रव्य में बनता है। सर्वज्ञ २४ शील २७३ समस्त द्रव्य तथा उनकी अनन्तानन्त इन्द्रियदमन को शील कहते हैं। पर्यायों को जाननेवाला सर्वज्ञ कहलाता शुद्धनय ११ है। जो द्रव्य को अभेदरूप से जानता है तथा संकल्प १३ परद्रव्य के संयोग से होनेवाले भाव को उस दर्शनमोह के उदय से परपदार्थों में जो द्रव्य का स्वभाव नहीं समझता वह शुद्धनय आत्मबुद्धि होती है उसे संकल्प कहते हैं। है। इसीका नाम निश्चय नय है। संक्लेशस्थान ५४ शुद्धि ३०६ कषाय के उदय की तीव्रता के स्थान। गुरु के द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित को धारण संयमलब्धिस्थान ५४ करना शुद्धि है। चारित्रमोह के विपाक की क्रम से निवृत्ति श्रुतज्ञान २०४ होने रूप स्थान। मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को संवर १८१ विशेषता से जानना श्रुतज्ञान है। इसके नवीन कर्मों का नहीं आना संवर है। अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक के भेद से संस्थान ५० २ भेद हैं। आकृति। इसके समचतुरस्रसंस्थान आदि श्रुतकेवली ६ भेद हैं। द्वादशाङ्ग के ज्ञाता मुनि। ये मुनि छठवें संहनन ५० गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक शरीरगत हड्डियों का विन्यास। इसके होते हैं। श्रुतकेवली का लक्षण ९-१० गाथा वज्र-वृषभ-नाराच-संहनन आदि ६ भेद में देखें। समय सिद्ध आत्मा अथवा जीवाजीवादि समस्त जिनकी आत्मा से समस्त कर्मों का पदार्थ। समबन्ध सदा के लिये छूट जाता है वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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