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समयसार
परिशिष्ट ५
शब्द-कोष
गाथा
गाथा
अतिव्याप्ति दोष
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लब्ध्यपर्याप्तक हैं। यह अवस्था सम्मूर्च्छन
जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में रहे, ऐसा जन्मवाले मनुष्य और तिर्यञ्चों के ही लक्षण, जैसे जीव अमूर्तिक है।
होती है। अप्रतिबुद्ध
अधर्म
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जीव और पुल के ठहरने में सहायक
द्रव्य ।
अध्यवसान
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आत्मा की रागादिरूप परिणति को अध्यवसान कहते हैं।
अध्यात्मस्थान
५२
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स्व और पर में एकत्व का भाव होना । अनुभागस्थान कर्मप्रकृतियों के फलदान की तरतमता । अनुमोदना (अनुमनन)
किसी कार्य की अनुमोदना करना । अनेकान्त
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वस्तु में रहनेवाले परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का सद्भाव |
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अपर्याप्त
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अपर्याप्तक के दो भेद हैं- १. निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक । जिनकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण तो नहीं हुई है परन्तु नियम से पूर्ण हो जायगी वे निर्वृत्त्यपर्याप्तक कहलाते हैं। गर्भ और उपपाद जन्म वालों की प्रथम अन्तर्मुहुर्त में यह अवस्था होती है। उसके बाद वे नियम से पर्याप्त हो जाते हैं। जिनकी एक भी पर्याप्त पूर्ण नहीं हुई है और न होगी वे
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कर्म, नोकर्म को आत्मरूप और आत्मा को कर्म-नोकर्म रूप माननेवाला जीव अप्रतिबुद्ध है - अज्ञानी है।
अप्रमत्त
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सप्तमगुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों को अप्रमत्त कहते हैं। अभव्य २७३
जिसे रत्नत्रय प्राप्त होने की योग्यता न हो उसे अभव्य कहते हैं। इसके विपरीत जिसे रत्नत्रय प्राप्त करने की योग्यता है उसे भव्य कहते हैं।
२३२
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अमूढदृष्टि अंग समस्त भावों में मूढता नहीं करना । अमेचक आत्मा की शुद्ध अवस्था को अमेचक कहते हैं। अवधिज्ञान
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जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी द्रव्यों को अवधि - सीमा लिये हुए जानता है वह अवधिज्ञान है। इसके २ भेद हैं -भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक। अविरतिभाव असंयमरूप भाव को अविरतिभाव कहते हैं। यह प्राणि असंयम और इन्द्रिय
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