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प्रस्तावना आत्मा परद्रव्य के कर्तव्य से रहित है। इसके समर्थन में कहा गया कि प्रत्येक द्रव्य अपने ही गुण और पर्यायरूप पणिमन करता है, अन्य द्रव्यरूप नहीं, इसलिये वह पर का कर्ता नही हो सकता। अपने ही गुण और पर्यायों का कर्ता हो सकता है। यही कारण है कि आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है। कर्मों का कर्ता पुद्गलद्रव्य है, क्योंकि ज्ञानावरणादिरूप परिणमन पुद्गलद्रव्य ही हो रहा है। इसी तरह रागादिक का कर्त्ता आत्मा ही है, परद्रव्य नहीं, क्योंकि रागादिरूप परिणमन आत्मा ही करता है। निमित्तप्रधान दृष्टि को लेकर पिछले अधिकार में पुद्गलजन्य होने के कारण राग को पौद्गलिक कहा है। यहाँ उपादानप्रधान दृष्टि को लेकर कहा गया है कि चूंकि रागादिरूप परिणमन आत्मा का होता है, अत: आत्मा के हैं। अमृतचन्द्रस्वामी ने तो यहाँ तक कहा है कि जो जीव रागादिक की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानते हैं वे शुद्धबोधविधुरान्ध बुद्धि हैं तथा मोहरूपी नदी को नहीं तैर सकते
रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।। २२१।।
कितने ही महानुभाव अपनी एकान्त उपादन की मान्यता का समर्थन करने के लिये इस कलशा का अवतरण दिया करते हैं। पर वे श्लोक में पड़े हुए ‘एव' शब्द की ओर दृष्टिपात नहीं करते। यहाँ अमृतचन्द्रसूरि ‘एव' शब्द के द्वारा, यह प्रकट कर रहे हैं कि जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही कारण मानते हैं स्वद्रव्य को कारण नहीं मानते, वे मोहनदी को नहीं तैर सकते। रागादिक की उत्पत्ति में परद्रव्य निमित्त कारण है और स्वद्रव्य उपादानकारण है। सो जो पुरुष स्वद्रव्यरूप उपादानकारण को न मानकर परद्रव्य को ही कारण मानते हैं—मात्र निमित्तकारण से उनकी उत्पत्ति मानते हैं वे मोहनदी को नहीं तैर सकते। यह ठीक है कि निमित्त कार्यरूप परिणत नहीं होता, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में उसका साहाय्य अनिवार्य आवश्यक है। अन्तरङ्ग बहिरङ्ग कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है। जिनागम की यह निर्विवाद मान्यता सनातन है।
__ आत्मा परका-कर्म का कर्ता नहीं है, यह सिद्धकर ज्ञानी जीव को कर्मचेतना से रहित सिद्ध किया गया है। इसी तरह ज्ञानी जीव अपने ज्ञायकस्वभाव का ही भोक्ता है, कर्मफल का भोक्ता नहीं है यह सिद्धकर कर्मफल चेतना से उसे रहित सिद्ध किया है। ज्ञानी तो एक ज्ञानचेतना से ही सहित है, उसी के प्रति उसकी स्वत्वबुद्धि रहती है।
इस अधिकार के अन्त में एक बात और बड़ी सुन्दर कही गई है। कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि कितने ही लोग मुनिलिङ्ग अथवा गृहस्थ के नानालिङ्ग
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