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________________ समयसार जीव और बन्ध अपने-अपने लक्षणों से जाने जाते हैं । सो जानकर बन्ध तो छेदने के योग्य है और आत्मा ग्रहण करने योग्य है। xliv शिष्य कहता है भगवान् ! वह लक्षण तो बताओ, जिसके द्वारा मैं आत्मा को समझ सकूँ। उत्तर में कुन्दकुन्दमहाराज कहते हैं— कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा | जह पण्णाइ विहत्तो तह पण्णा एव घित्तव्वो ।। २९६ ।। उस आत्मा का ग्रहण कैसे किया जावे ? प्रज्ञा - भेदज्ञान के द्वारा आत्मा का ग्रहण किया जावे। जिस तरह प्रज्ञा से उसे विभक्त किया था उसी तरह प्रज्ञा से उसे ग्रहण करना चाहिये । पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ।। २९७ ।। प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करने योग्य जो चेतयिता है वही मैं हूँ और अवशेष जो भाव हैं वे मुझसे पर हैं। इस प्रकार स्वपर के भेदविज्ञान पूर्वक जो चारित्र धारण किया जाता है वही मोक्षप्राप्ति का वास्तविक पुरुषार्थ है । चारित्र की परिभाषा करते हुए कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में कहा है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोह - विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो । । चरित्र ही वास्तव में धर्म है, और सम परिणाम धर्म है तथा मोह - मिथ्यात्व और क्षोभ — रागद्वेष से रहित आत्मा की जो परिणति है वही साम्यभाव है। व्रत, समिति, गुप्ति आदि इसी साम्यभावरूप चारित्र की प्राप्ति में साधक होने से चारित्र कहे जाते हैं। यह अधिकार २२८ से लेकर ३०७ गाथा तक चलता है। सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार आत्मा के अनन्त गुणों में ज्ञान ही सबसे प्रमुख गुण है। उसमें किसी प्रकार का विकार शेष न रह जावे, इसलिये पिछले अधिकारों में उक्त अनुक्त बातों का एक बार फिर से विचार कर ज्ञान को सर्वथा निर्दोष बनाने का प्रयत्न इस सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार में किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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