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स्याद्वादाधिकार
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यहाँ टीकाकार अमृतचन्द्रस्वामी ने अपनी लघुता प्रकाशित की है। साथ ही अपने आपको ‘स्वरूपगुप्तस्य' विशेषण देकर यह सिद्धान्त भी प्रकट किया है कि जब यह जीव आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है तब उसका परपदार्थों के प्रति कर्तृत्व का भाव नष्ट हो जाता है। अर्थात् वह परपदार्थों का कर्ता नहीं बनाता। इस समयप्राभृत ग्रन्थ की व्याख्या प्रारम्भ करते समय सूरि ने कहा था कि परपरिणति का कारण जो मोह है उसके प्रभाव से मलिन मेरी चिन्मात्रमूर्ति में इस समयसार की व्याख्या से परम विशुद्धता होवे। अब ग्रन्थ के अन्त में प्रकट करते हैं कि मेरा अज्ञान विज्ञानघन में विलीन हो गया तथा मैं स्वरूप में लीन हो गया, इस तरह मुझमें परम विशुद्धता आई है, उसके फलस्वरूप मेरा पर के प्रति कर्तृत्वभाव निकल चुका है। अत: मैं इस ग्रन्थ का कर्ता नहीं हूँ। तो फिर इस व्याख्या को किसने बना दिया? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि अपनी अभिधाशक्ति के सद्भाव से सब शब्दों में वस्तु-स्वरूप के कहने का सामर्थ्य रहता है। अत: शब्दों के द्वारा ही यह व्याख्या बनाई गई है।।२७७।।
इस प्रकार कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयप्राभृत के अमृतचन्द्रसूरि रचित
स्याद्वादाधिकार का प्रवचन पूर्ण हुआ।
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