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स्याद्वादाधिकार
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है कि हमारा ज्ञान स्वक्षेत्र में अस्तिरूप है तथा परक्षेत्र में नास्तिरूप है। जब परक्षेत्र में नास्तिरूप है तब उसका परक्षेत्र सम्बन्धी ज्ञेयों के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इस तरह बाह्य ज्ञेयों का यदि वह त्याग करता है तो भी अपनी स्वच्छता से परक्षेत्र सम्बन्धी ज्ञेयों के आकारों को ग्रहण करता रहता है । उन आकारों की अपेक्षा वह ज्ञान नाश को प्राप्त नहीं होता। इस विवेचन से स्पष्ट है कि एकान्तवादी तो नष्ट होता है और स्याद्वादी जीवित रहता है । यह परक्षेत्र की अपेक्षा नास्तित्व का आठवाँ भङ्ग है ।। २५४।।
शार्दूलविक्रीडितछन्द
पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन्
सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः । अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहूर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ।। २५५ ।।
अर्थ - अज्ञानी एकान्तवादी जिनका पूर्वकाल में आलम्ब लिया गया था, ऐसे ज्ञेय पदार्थों के नाश के समय ज्ञान का नाश जानता हुआ समझता है कि हमारे पास कुछ भी नहीं रहा, इस तरह अत्यन्त तुच्छ होता हुआ नियम से नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वाद को जाननेवाला पुरुष निजकाल की अपेक्षा ज्ञान के अस्तित्व को स्वीकार करता है । इसलिये बाह्य वस्तुओं के बार-बार होकर नष्ट हो जाने पर भी पूर्ण ही ठहरता है अर्थात् नाश को प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ- एकान्तवादी अज्ञानी पदार्थों के आलम्बन से ज्ञान होता है, ऐसा मानता है। एतावता जब पूर्णकाल में आलम्बित पदार्थों का नाश हो जाता है तब विवश होकर उसे मानना पड़ता है कि ज्ञान का भी नाश हो जाता है। इस तरह ज्ञान का नाश होने पर वह कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता। तब अत्यन्त तुच्छ होता हुआ नाश को प्राप्त होता है । परन्तु स्याद्वादी ज्ञान और ज्ञेय के अस्तित्व को पृथग्-पृथग् मानता है, इसलिये पूर्वालम्बित ज्ञेयों का नाश होने पर उनके अस्तित्व को नष्ट हुआ मानता है, न कि ज्ञान के अस्तित्व को। ज्ञान स्वकाल की अपेक्षा अपने अस्तित्व को सदा सुरक्षित रखता है । बाह्य ज्ञेय अपने-अपने चतुष्टय की अपेक्षा उत्पन्न होते हैं तथा नाश को भी प्राप्त होते हैं, परन्तु इससे ज्ञान का अस्तित्व नष्ट नहीं होता। इस वस्तु - विवेचन को स्वीकृत करनेवाला स्याद्वादी सदा स्थित रहता है— नष्ट नहीं होता। यह स्वकाल की अपेक्षा अस्तित्व का नौवाँ भङ्ग है ।। २५५।।
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