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________________ ४१६ समयसार जानता है ऐसा अज्ञानी एकान्तवादी पुरुष (आत्मा) को सब ओर से बाह्य पदार्थों में ही पड़ता हुआ देख निरन्तर दुःखी होता है—नष्ट होता है। परन्तु स्याद्वाद को जाननेवाला ज्ञानी, स्वक्षेत्र के अस्तित्व से जिसका वेग रुक गया है तथा जिसके जाननेरूप व्यापार की शक्ति स्वक्षेत्र में स्थित ज्ञेय पदार्थों में नियत है, ऐसा होता हुआ विद्यमान रहता है-नष्ट नहीं होने पाता। भावार्थ- अज्ञानी एकान्तवादी, भिन्न क्षेत्र में स्थित ज्ञेय पदार्थों के जाननेरूप व्यापार में प्रवृत्त पुरुष को सब ओर से बाह्य पदाओं में पड़ता हुआ देख नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वाद का ज्ञाता मानता है कि पुरुष (आत्मा) स्वक्षेत्र में स्थित रहकर अन्य क्षेत्र में स्थित ज्ञेयों को जानता है। अज्ञानी के मत में जिस प्रकार पुरुष बाह्य पदार्थों में वेग से पड़ता है वैसे स्याद्वादी के मत में नहीं पड़ता, स्वक्षेत्र के अस्तित्व से उसका वेग रुक जाता है, वह अपने आप में प्रतिबिम्बित जो ज्ञेय हैं उन्हीं को जानता है। ऐसा जानता हुआ स्याद्वादी नाश को प्राप्त नहीं होता। यह स्वक्षेत्र में अस्तित्व का सप्तम भंग है।।२५३।। ___ शार्दूलविक्रीडितछन्द स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झना तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान्सहार्थैर्वमन् स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्।।२५४।। अर्थ- अज्ञानी एकान्तवादी स्वक्षेत्र में ठहरने के लिये परक्षेत्र में स्थित नानाप्रकार के ज्ञेय पदार्थों के छोड़ने से तुच्छ होकर ज्ञेय पदार्थों के साथ चिदाकारों को भी छोड़ता हुआ नष्ट होता है। परन्तु स्याद्वादी स्वक्षेत्र में बसता हुआ तथा परक्षेत्र में अपनी नास्तिता को जानता हुआ यद्यपि परक्षेत्रगत बाह्य ज्ञेयों को छोड़ता है तो भी तुच्छता का अनुभव नहीं करता-नाश को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि स्वक्षेत्र में स्थित रहता हुआ भी परक्षेत्रगत परपदार्थों को आकार द्वारा खींचता रहता है अर्थात् उनका आकार ज्ञान में प्रतिभासित होता रहता है। भावार्थ- स्वक्षेत्र में स्थित ज्ञान में परक्षेत्रगत पदार्थों का आकार प्रतिफलित होता है। एतावता एकान्तवादी अज्ञानी यह समझकर कि यदि चैतन्य के आकारों को अपना मानूँगा तो अपना क्षेत्र छूट जायगा, इसलिये जिस प्रकार ज्ञेय पदार्थों को छोड़ता है उसी प्रकार ज्ञान में पड़े हुए उनके आकारों को भी छोड़ता है। इस तरह तुच्छ होकर वह एकान्तवादी नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वादी समझता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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