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________________ ३८६ के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १२४, मैं सुभगनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप ० १२५, मैं दुर्भगनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १२६, मैं सुस्वरनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १२७, मैं दु:स्वरनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप ० ० १२८, मैं शुभनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १२९, मैं अशुभनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १३०, मैं सूक्ष्मशरीरनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १३१, मैं बादरशरीरनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप ० १३२, मैं पर्याप्तनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १३३, मैं अपर्याप्तनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप ० १३४, मैं स्थिरनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप ० १३५, मैं अस्थिरनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप ० १३६, मैं आदेयनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १३७, मैं अनादेयनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १३८, मैं यश: कीर्तिनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १३९, मैं अयश: कीर्तिनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४०, मैं तीर्थंकरत्वनाम कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४१, मैं उच्चगोत्रकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४२, मैं नीचगोत्रकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४३, मैं दानान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४४, मैं लाभान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४५, मैं भोगान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४६, मैं उपभोगान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४७, मैं वीर्यान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ, चैतन्यस्वरूप० १४८ । समयसार यहाँ आशङ्का होती है कि जब ऊपर लिखे अनुसार कर्मों का फल आत्मा नहीं भोगता है तो फिर कौन भोगता है ? क्या जड़ शरीर भोगता है ? इसका उत्तर यह है कि जड़ शरीर नहीं भोगता, क्योंकि जड़ शरीर में स्वयं सुख-दुःख का वेदन करने का सामर्थ्य नहीं है। फलतः आत्मा ही भोगता है । परन्तु कर्मों के उदय से आत्मा की जो अशुद्ध दशा होती है वह आत्मा का स्वभाव नहीं है। आत्मा का स्वभाव तो चैतन्यरूप है, अतः ज्ञानी जीव उसी चैतन्यस्वरूप का निरन्तर अनुभव करता है। कर्मोदय से होनेवाली अवस्थाओं को परजन्य होने से आत्मस्वभाव से पृथक् अनुभव करता है। जिस प्रकार अग्नि के सम्बन्ध से 'पानी उष्ण हो गया' यहाँ व्यवहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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