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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३७७ आर्याछन्द मोहाद्यदहमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।।२२५।। अर्थ- मैंने मोह से कर्म किये थे उन समस्त कर्मों का प्रतिक्रमण कर मैं समस्त कर्मों से रहित चैतन्यस्वरूप आत्मा में अपने आप के द्वारा निरन्तर वर्त रहा हूँ।।२२५।। इस तरह प्रतिक्रमण कल्प समाप्त हुआ। अब आलोचना सम्बन्धी ४९ भङ्ग कहे जाते हैं मैं वर्तमान में कर्म को न करता हूँ न कराता हूँ और न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मन से, वचन से, काय से १, मैं कर्म को न करता हूँ, न करता हूँ, न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मन से और वचन से २, मैं कर्म को न करता हूँ, न कराता हूँ, न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मन और काय से ३, मैं कर्म को न करता हूँ, न कराता हूँ, न करते हुए अन्य को अन्य की अनुमति देता हूँ वचन और काय से ४, मैं कर्म को न करता हूँ, न कराता हूँ, न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मन से ५, मैं कर्म को न करता हूँ न कराता हूँ न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ वचन से ६, मैं कर्म को न करता हूँ न कराता हूँ न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ काय से ७, मैं कर्म को न करता हूँ न कराता हूँ मन से, वचन से, काय से ८, मैं कर्म को न करता हूँ न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मनसे, वचन से, काय से ९, मैं कर्म को न कराता हूँ न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मन से, काय से १०, मैं कर्म को न करता हूँ न कराता हूँ मन से, वचन से ११, मैं कर्म को न करता हूँ न करते हुए अन्य को अनुमति देता हूँ मन से, वचन से १२, मैं कर्म को न करवाता हूँ न भंगों में कृत, कारित, अनुमोदना में से दो-दो लेकर उनपर मन, वचन, काय में से १-१ लगाया है। इन नौ भंगों को २१ की संज्ञा से पहिचाना जा सकता है। २९ से ३१ तक के भंगों में कृत, कारित, अनुमोदना में से एक-एक लेकर उन पर मन, वचन, काय तीनों लगाये हैं। इन तीन भंगों को १३ की संज्ञा से जाना जा सकता है। ३२ से ४० तक के भंगों में कृत, कारित, अनुमोदना में से एक-एक लेकर उनपर मन, वचन, काय में दो-दो लगाये हैं। इन नौ भंगों को १२ की संज्ञा से पहिचाना जा सकता है। ४१ से ४९ तक के भंग में कृत, कारित, अनुमोदना में से एक-एक लेकर उनपर मन, वचन, काय में से एक-एक लगाया है। इन ९ भंगों की संज्ञा ११ है। इस प्रकार सब मिलाकर ४९ भंग हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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