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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार है उसी प्रकार इससे प्रतिफलित होनेवाला दृष्टान्तिक है। जैसे
यहाँ पर चेतयिता जो आत्मद्रव्य है सो ज्ञान-दर्शन गुण से परिपूर्ण और परद्रव्य के अपोहन रूप चारित्र गुण को धारण करनेवाला है तथा उसी आत्मद्रव्य के अपोह्यरूप रुप पुद्गलादि परद्रव्य हैं। अब अपोहक अर्थात् पर पदार्थ का त्याग करनेवाला चेतयिता अपोह्य अर्थात् त्याग करने योग्य पुद्गलादिक परद्रव्य का है अथवा नहीं? इस प्रकार अपोह्य और अपोहक इन दो तत्त्वों के सम्बन्ध की मीमांसा की जाती है।
यदि चेतयिता पुद्गलादिक का है तो 'जो जिसका होता है वह उसी रूप होता है, जैसे ज्ञान आत्मा का होता हुआ आत्मा रूप होता है' इस तत्त्वसम्बन्ध के जीवित रहते हुए चेतयिता पुद्गलादिक का होता हुआ पुद्गलादि रूप ही हो जावेगा और ऐसा होने पर चेतयिता के स्वद्रव्य का उच्छेद हो जावेगा अर्थात् चेतयिता पुद्गलादि रूप होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देगा, सो द्रव्य का उच्छेद कभी हो नहीं सकता, क्योंकि द्रव्यान्तर-संक्रमण का निषेध पहले कर आये हैं। इससे सिद्ध हुआ कि चेतयिता पुद्गलादिक का नहीं है। अब यह आशंका होती है कि यदि चेतयिता पुद्गलादिक का नहीं है तो फिर किसका है? इसका उत्तर यह है कि चेतयिता चेतयिता का ही है। पुनः प्रश्न होता है कि वह अन्य चेतयिता कौन है जिसका वह चेतयिता होता है? इसका उत्तर यह है कि चेतयिता से अन्य कोई दूसरा चेतयिता नहीं है किन्तु स्व-स्वामी के अंश ही अन्य हैं। कोई फिर पूछता है कि यहाँ स्व-स्वामी अंश के व्यवहार से क्या साध्य है? कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होने वाला है? उसका उत्तर यह है कि कुछ भी नहीं। इससे यह निश्चय हुआ कि चेतयिता किसी का अपोहक नहीं है, अपोहक अपोहक ही है। इस प्रकार ज्ञेय-ज्ञायक, दृश्य-दर्शक और अपोह्मअपोहक सम्बन्ध का विचार निश्चयनय की अपेक्षा किया। अब व्यवहारनय की अपेक्षा इन सम्बन्धों पर विचार किया जाता है
जिस प्रकार श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव वाली सेटिका स्वयं भित्ति आदि परद्रव्य रूप नहीं परिणमती और भित्ति आदि परद्रव्य को अपने रूप नहीं परिणमाती, किन्तु भित्ति आदि परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम से उत्पन्न होती हुई भित्ति आदि परद्रव्य को, जो सेटिका निमित्तक अपने स्वभाव के परिणाम से उत्पन्न हो रहा है, अपने स्वभाव से सफेद करती है, ऐसा व्यवहार होता है। उसी प्रकार ज्ञानगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी स्वयं पुद्गलादि परद्रव्य के स्वभाव से नहीं परिणमता है और पुद्गलादि परद्रव्य को अपने स्वभाव रूप नहीं परिणमाता है, किन्तु पुद्गलादि परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले
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