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________________ ३५६ समयसार पुद्गलादिक का नहीं है। यहाँ आशङ्का होती है कि यदि चेतयिता पदगलादिक का नहीं तो किसका है? इसका उत्तर है कि चेतयिता चेतयिता का ही है। फिर आशङ्का होती है कि वह अन्य चेतयिता कौन है जिसका कि चेतयिता होता है? तो उसका उत्तर है कि चेतयिता से अन्य चेतयिता नहीं है किन्तु स्व-स्वामी अंश ही अन्य है अर्थात् आप ही स्व है और आप ही स्वामी है, इस प्रकार की कल्पना से स्वस्वामी व्यवहार की उपपत्ति हो जाती है। यहाँ कोई पुनः पूछता है कि स्व-स्वामी अंश के व्यवहार से साध्य क्या है? कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? तो उत्तर यह है कि कुछ भी नहीं है। इससे यह निश्चय हुआ कि दर्शक आत्मा किसीका नहीं है किन्तु दर्शकदर्शका का ही है। चेतयिता तात्त्विकदृष्टि से किसी का दर्शक नहीं है किन्तु स्वयमेव दर्शक है ऐसा निश्चय सिद्धान्तहै। जिस प्रकार काष्ठादि पदार्थों को जलाने से अग्नि दाहक है सो नहीं, किन्तु स्वयमेव अग्नि दाहक है। इसी प्रकार घटपटादि पदार्थों के देखने से आत्मा दर्शक है सो नहीं, किन्तु आत्मा परनिरपेक्ष स्वयं दर्शक है। यह पद्धति चारित्रगुण के विषय में स्वीकार्य है। जैसे यहाँ साटिका श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है और व्यवहार से श्वेत करने योग्य भित्ति आदि उसके परद्रव्य हैं। यहाँ सफेद करनेवाली सेटिका भित्ति आदि परद्रव्य की है अथवा नहीं? इस प्रकार श्वैत्य और श्वेतक दो पदार्थों के सम्बन्ध की मीमांसा की जाती है। यदि सेटिका भित्ति आदि परद्रव्य की मानी जावे तो 'जो जिसका होता है वह उसी रूप होकर रहता है, जैसे ज्ञान आत्मा का होता हुआ आत्मा रूप ही होता है' इस तत्त्वसम्बन्ध के जीवित रहते हुए सेटिका यदि भित्ति आदि की है तो उसे भित्ति आदि रूप ही होना चाहिये और ऐसा होने पर सेटिका के स्वद्रव्य का उच्छेद हो जावेगा अर्थात् सेटिका भित्ति आदि रूप होकर अपनी सत्ता नष्ट कर देगी। परन्तु द्रव्य का उच्छेद हो नहीं सकता, क्योंकि द्रव्यान्तर संक्रमण का निषेध पहले किया जा चुका है। इससे यह निश्चय हुआ कि सेटिका भित्ति आदि की नहीं है। तब आशङ्का होती है कि यदि सेटिका भित्ति आदि की नहीं है तो किसकी है? इसका उत्तर है कि सेटिका की ही सेटिका है। फिर आशङ्का होती है कि वह अन्य सेटिका कौन है जिसकी कि सेटिका होती है? इसका उत्तर है कि सेटिका से अन्य सेटिका नहीं है किन्तु स्व-स्वामी अंश ही अन्य हैं। कोई फिर पूछता है कि यहाँ स्व-स्वामी अंश के व्यवहार से क्या साध्य है? कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? उसका उत्तर है कि कुछ भी नहीं। इससे यह निश्चय हुआ कि सेटिका किसी अन्य की नहीं है, किन्तु सेटिका सेटिका की ही है। जिस प्रकार यह दृष्टान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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