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________________ ३५४ ही में स्वामित्व अंश मानकर व्यवहार से उपपत्ति कर लेनी चाहिये तब कोई पुनः पूछता है कि यहाँ स्व और स्वामि अंश के व्यवहार से साध्य क्या है? कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है? उसका उत्तर देते हैं कि कुछ भी नहीं। तब यही निश्चय हुआ कि सेटिका किसी अन्य की नहीं है किन्तु सेटिका सेटिका ही है। जिस प्रकार यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस दृष्टान्त से प्रतिफलित होने वाले दृष्टान्तिक अर्थ को जान लेना चाहिये। समयसार यहाँ पर जो चेतायिता है वह ज्ञानगुण से पूरित स्वभाव वाला द्रव्य है और व्यवहार से पुद्गलादिक परद्रव्य उसके ज्ञेय हैं । अब यहाँ पर ज्ञायक जो चेतयिता है वह ज्ञेयरूप पुद्गलादिक परद्रव्य का है अथवा नहीं है ? इस प्रकार ज्ञेय और ज्ञायक इन उभय तत्त्वों के सम्बन्ध पर विचार किया जाता है— यदि ऐसा माना जावे कि चेतयिता पुद्गलादिक परद्रव्य का है तो 'जो जिसका होता है वह उसी रूप होता है, जैसे ज्ञान आत्मा का होता हुआ आत्मरूप ही होता है' इस तत्त्वसम्बन्ध के जीवित रहते हुए चेतयिता को यदि पुद्गलादिकका माना जावे तो उसे पुद्गलादि रूप ही हो जाना चाहिये और ऐसा होने पर चेतयिता के स्वद्रव्य का उच्छेद हो जायेगा अर्थात् चेतयिता अन्यरूप होकर अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा, क्योंकि द्रव्यान्तर संक्रमण का पहले ही निषेध कर आये हैं, अतः द्रव्य का उच्छेद हो नहीं सकता। तब यह सिद्ध हुआ कि चेतयिता पुद्गलादिक परद्रव्य का नहीं है। इस स्थिति में यहाँ यह आशङ्का होती है कि यदि चेतयिता पुद्गलादिकका नहीं है तो किसका है ? इसका उत्तर यह है कि चेतयिता चेतयिता का ही है । इस पर पुनः प्रश्न होता है कि वह अन्य चेतयिता कौन है जिसका कि चेतयिता होता है ? तो उसका उत्तर है कि चेतयिता से अन्य चेतयिता नहीं है किन्तु आप ही स्व और आप ही स्वामी है। इस प्रकार आप ही में अंश अंशी की कल्पना से ऐसा व्यवहार होता है। कोई फिर पूछता है कि यहाँ स्व-स्वामी अंश के इस व्यवहार से क्या साध्य है ? कौन- सा प्रयोजन सिद्ध होता है? तो उसका उत्तर है कि कुछ भी साध्य नहीं है। तब यही निश्चय हुआ कि ज्ञायक जो चेतयिता है वह किसी का नहीं है किन्तु ज्ञायक ज्ञायक का ही अथवा चेतयिता चेतयिता का ही है अर्थात् ज्ञायक अथवा चेतयिता है - वह स्वरूप से ही ज्ञायक अथवा चेतयिता है। अब यही पद्धति आत्मा के दर्शक होने के विषय में ग्राह्य है। जैसे— यहाँ पर सेटिका श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव वाला पुद्गलद्रव्य है, और व्यवहार से सफेद करने के योग्य भित्ति आदि उसके परद्रव्य हैं । अब यहाँ सफेद करने वाली सेटिका, सफेद करने के योग्य जो भित्ति आदि परद्रव्य हैं उनकी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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