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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३५३ है। अब इस विषय में व्यवहारनय का जो वक्तव्य है, उसे संक्षेप से कहते हैं, सो सुनो। जैसे सेटिका अपने स्वभाव से ही भित्ति आदि परद्रव्य को सफेद करती है वैसे ही ज्ञाता आत्मा भी अपने ज्ञायकस्वभाव से परद्रव्य को जानता है। जिस तरह सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को सफेद करती है उसी तरह जीव भी अपने स्वभाव से परद्रव्य का अवलोकन करता है। जिस प्रकार सेटिका अपने स्वभाव से ही परद्रव्य को सफेद करती है उसी प्रकार ज्ञाता आत्मा भी अपने स्वबाव से परद्रव्यों का त्याग करता है अर्थात् परद्रव्यों का त्यागकर संयत होता है। जिस तरह सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को सफेद करती है उसी तरह सम्यग्दृष्टि आत्मा भी अपने स्वभाव से परद्रव्य का श्रद्धान करता है। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में व्यवहारनयका जो मत है वह कहा गया। इसी पद्धति से अन्य पर्यायों के विषय में भी व्यवहारनय का निर्णय जानना चाहिये। विशेषार्थ- यहाँ सेटिका श्वेतगुण से पूरित स्वभाव वाला द्रव्य है और उसके व्यवहार से सफेद करने योग्य जो भित्ति आदिक हैं वह परद्रव्य हैं। अब यहाँ पर इसी का विचार करते हैं सफेद करनेवाली जो सेटिका है वह सफेद करने के योग्य भित्ति आदि परद्रव्य की है या नहीं है? इस प्रकार श्वैत्य और श्वेतिका इन उभय तत्त्वों की मीमांसा की जाती है। यदि सेटिका भित्ति आदिकी है तो ऐसा सिद्धान्त है कि जो जिसका होता है वह वही होता है अर्थात् उसी रूप होता है जैसे ज्ञान आत्मा का है तो वह आत्मा ही होता है। इस सिद्धान्त के रहते हुए सेटिका यदि भित्ति आदि की है ऐसा माना जाय तो उसे भित्ति आदि रूप ही होना चाहिये और ऐसा होने पर सेटिका के स्वद्रव्य का उच्छेद हो जावेगा अर्थात् सेटिका भित्ति आदि से पृथक् कोई द्रव्य नहीं रहेगा और ऐसा होता नहीं, क्योंकि द्रव्यान्तर संक्रमण का पहले ही निषेध कर चुके हैं। अतएव सेटिका भित्ति आदि की नहीं है। अब फिर आशङ्का होती है कि यदि सेटिका भित्ति आदि की नहीं है तो किसकी है? इस आशङ्का का यह उत्तर है कि सेटिका की ही है। इस पर पुन: आशङ्का होती है कि वह अन्य सेटिका कौन-सी है, जिसकी कि यह सेटिका है? इसका उत्तर यह है कि सेटिका से अन्य सेटिका नहीं है किन्तु आप ही में स्व और आप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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