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बन्धाधिकार
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वस्तुस्थिति होने से अहंकाररूप अज्ञानभाव की समानता दोनों में है। अत: यह न जानना कि शुभ बन्ध का कारण अन्य है और अशुभ बन्ध का कारण अन्य है। पर अज्ञान की अपेक्षा दोनों एक ही हैं।।२६०।२६१।।
इसी प्रकार हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है, यह सिद्ध हुआ, यह कहते हैं
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।।२६२।।
अर्थ- प्राणियों को मारो, चाहे मत मारो, अध्यवसायभाव से ही बन्ध होता है, निश्चयनय का संक्षेप से जीवों के बन्धन के विषय में यह निश्चित सिद्धान्त है। तात्पर्य यह है कि प्राणी का घात होवे अथवा मत होवे, यदि मारने का अभिप्राय है तो नियम से बन्ध है। यदि कोई जीव किसी जीव को मारना चाहता है और वह जीव स्वकीय आयुकर्म के निमित्त से नहीं मरता तो भी मारने के अभिप्रायवाला पापभागी होता ही है।
विशेषार्थ- परजीवों का स्वकीय कर्मोदय की विचित्रता से कदाचित् प्राण का वियोग होवे अथवा न होवे, किन्तु “मैं इसे मारता हूँ' ऐसा जो अहंकार से भरा हुआ हिंसा के विषय में अध्यवसायभाव है वह भाव ही निश्चय से उस जीव के बन्ध का जनक है। परमार्थ से पर के प्राणव्यपरोपण में पर की सामर्थ्य नहीं है।।२६२।।
आगे अध्यवसायभाव ही पुण्य और पाप के बन्ध का कारण है, यह दिखाते हैं
एवमलिये अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव। कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु वज्झए पावं ।।२६३।। तहवि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गगहत्तणे चेव। कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झए पुण्णं ।।२६४।।
(युग्मम्) अर्थ- जिस प्रकार हिंसा का अध्यवसाय कहा, उसी प्रकार मिथ्याभाषण, अदत्तग्रहण, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के विषय में जो अध्यवसान किया जाता है उससे पापबन्ध होता है तथा सत्यभाषण, दत्तग्रहण, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के विषय में जो अध्यवसान किया जाता है उससे पुण्यबन्ध होता है।
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