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निर्जराधिकार
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से यह धर्म का केवल ज्ञायक ही है।
इच्छा और परिग्रह का अविनाभाव सम्बन्ध है अर्थात् जहाँ इच्छा है वहीं परिग्रह का सद्भाव है। इच्छा मोहकर्म के उदय से जायमान होने के कारण अज्ञानमयभाव है, इसलिये स्वसंवेदनज्ञानी जीव शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म को छोड़कर शुभोपयोगरूप धर्म-अर्थात् पुण्य की इच्छा नहीं करता। यद्यपि अपने पद के अनुकूल ज्ञानी जीव के पुण्यरूप परिणाम होते हैं तो भी ‘यह पुण्य मेरा स्वरूप नहीं है' ऐसा निश्चय होने से वह पुण्य से तन्मय नहीं होता। जिस प्रकार कोई दर्पण में पड़े हुए प्रतिबिम्ब का ज्ञायक होता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव अपने आत्मा में आये हुए पुण्य-परिणाम का ज्ञायक ही होता है, पुण्यपरिणामरूप अपने आप को नहीं मानता है।।२१०।।
आगे ज्ञानी के इसी प्रकार धर्म का भी परिग्रह नहीं है, यह कहते हैंअपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।।२११।।
अर्थ-ज्ञानी जीव इच्छा रहित है, अत: परपदार्थ के परिग्रह से रहित है, ऐसा कहा गया है, इसीसे ज्ञानी जीव अधर्म की इच्छा नहीं करता। यही कारण है कि ज्ञानी जीव के अधर्म का परिग्रह नहीं है। वह तो केवल उसका ज्ञाता है।
विशेषार्थ-इच्छा है वह परिग्रह है, जिसके इच्छा नहीं है उसके परिग्रह नहीं है। इच्छा अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानी के नहीं है, ज्ञानी के तो ज्ञानमय ही भाव होता है। इसीसे ज्ञानी जीव अज्ञानमय भावात्मक इच्छा के अभाव से अधर्म को नहीं चाहता है। इसीलिये ज्ञानी के अधर्म का परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव से यह केवल अधर्म का ज्ञायक है। इसी पद्धति से अधर्म पद को परिवर्तित कर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रवण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन- ये सोलह पद रखकर सोलह सूत्रों की व्याख्या करनी चाहिये।
यहाँ विषय-कषायरूप पाप-परिणाम को अधर्म कहा गया है। ज्ञानी जीव जब धर्म को अपना स्वीय परिणाम नहीं मानता, तब अधर्म को स्वीय परिणाम कैसे मान सकता है? यद्यपि ज्ञानी जीव के भी चतुर्थ-पञ्चम गुणस्थान में विषय-कषायरूप परिणाम होते हैं परन्तु वह उन्हें 'ये परिणाम मेरे हैं' ऐसा नहीं मानता। उसकी श्रद्धा है कि चारित्रमोह के उदय से जो ये विकारीभाव उत्पन्न हो रहे हैं वे मेरे स्वभाव नहीं है। जैसे दर्पण, प्रतिबिम्ब से तन्मय दिखता हुआ भी वास्तव में उससे तन्मय
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