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________________ २४० ही परद्रव्य का आत्मीय धन है और परद्रव्य ही परद्रव्य का स्वामी है, मेरा जो स्व है वह मैं ही हूँ और अपना स्वामी मैं स्वयं आप हूँ । इस प्रकार यह ज्ञानी आत्मा जानता है ।।२०९ ।। अब यही भाव कलशा में प्रकट कते हैं समयसार वसन्ततिलकाछन्द इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् । Jain Education International अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।। १४५ ।। अर्थ-इस प्रकार सामान्यरूप से समस्त परिग्रह का त्याग कर अपने और पर के अविवेक का कारण जो अज्ञान है उसे त्याग करने का जिसका अभिप्राय है, ऐसा यह ज्ञानी विशेषरूप से परिग्रह के त्याग करने में प्रवृत्त होता है । भावार्थ - ज्ञानी जीव सामान्यरूप से सभी परिग्रह का त्यागकर धर्म, अधर्म भाव तथा भोजन पान आदि विशिष्ट परिग्रह के त्याग करने के लिये प्रवृत्त होता है, क्योंकि अज्ञानदशा में वह निज और परको एक समझता रहा है । परन्तु ज्यों ही ज्ञानी दशा प्रकट होती है त्यों ही इसे अनुभव होने लगता है कि एक ज्ञायकभाव ही मेरा है। उसके सिवाय अन्य समस्त द्रव्य मेरे नहीं हैं। अतः उसमें स्वीय बुद्धि का त्याग करना ही कल्याण करनेवाला है । । १४५ ।। अब कहते हैं कि ज्ञानी के धर्म का परिग्रह नहीं हैअपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्मं । अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होई । । २१० ।। अर्थ - ज्ञानी जीव परिग्रह से रहित है । अतएव उसके परिग्रह की इच्छा भी नहीं है, इसीसे वह धर्म को नहीं चाहता है । जिस कारण उसके धर्म का परिग्रह नहीं है तिस कारण वह धर्म का मात्र ज्ञाता है । विशेषार्थ - इच्छा का अर्थ परिग्रह है अर्थात् इच्छा ही परिग्रह है। जिस जीव के इच्छा नहीं है उसके परिग्रह नहीं है । इच्छा अज्ञानमयभाव है और ज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव का अभाव है। ज्ञानी जीव के तो ज्ञानमय ही भाव होता है । ज्ञानी जीव अज्ञानमय भावरूप इच्छा के असद्भाव से धर्म की इच्छा नहीं करता है, इसी हेतु से ज्ञानी के धर्म का परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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