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समयसार
आगे कलशा द्वारा कहते हैं कि ज्ञान की प्राप्ति ज्ञानगुण के बिना दुर्लभ है
शार्दूलविक्रीडितछन्द क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभि:
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्। साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।।१४२।। अर्थ- मोक्ष के उद्देश्य से किये हुए अत्यन्त कठिन कार्यों के द्वारा कोई स्वयं ही क्लेश उठावे, तो भले ही उठावे, अथवा महाव्रत और तप के भार से पीड़ित हुए अन्य लोग चिरकाल तक क्लेश सहन करें, तो भले ही करें। परन्तु साक्षात् मोक्षरूप निरामयपद-निरुपद्रव स्थान तो यह ज्ञान ही है, इसका स्वयं स्वसंवेदन हो रहा है, यह स्वयं अनुभव में आ रहा है। ऐसे इस ज्ञानरूप पद को ज्ञानगुण के बिना प्राप्त करने के लिये कोई किसी भी तरह समर्थ नहीं है।
यहाँ पर ज्ञानगुण को प्रधानता देकर ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा गया है। इसका यह तात्पर्य ग्राह्य नहीं है कि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मोक्ष के लिये आवश्यक नहीं हैं। भेदविवक्षा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ही मोक्ष-प्राप्ति के अंग है। परन्तु यहाँ पर सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को ज्ञान में गतार्थ कर दिया है। ज्ञान की जो दृढ़ता है वही सम्यग्दर्शन है और ज्ञान में कषायोदय के कारण जो चंचलता आती थी उसका अभाव हो जाना सम्यक्चारित्र है।।१४२।।
आगे यही भाव गाथा में दिखाते हैंणाणगुणेण विहीणा एयं तु पयं बहू वि ण लहंति । तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ।।२०५।।
अर्थ-हे भव्य! यदि तुम सब ओर से कर्मों से छुटकारा चाहते हो, तो उस निश्चित ज्ञान को ग्रहण करो, क्योंकि ज्ञानगुण से रहित अनेकों प्राणी इस पद को प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
विशेषार्थ-यत: कर्म में ज्ञान का प्रकाश नहीं है, अत: निखिल कर्म के द्वारा ज्ञान की उपलब्धि असंभव है। ज्ञान में ज्ञान का प्रकाश है, अत: केवल ज्ञान के द्वारा ही ज्ञान का लाभ होता है। इसी कारण से अनेक पुरुष ज्ञानशून्य होकर अनेक प्रकार के कर्मों द्वारा इस ज्ञानरूप निरामय पद को नहीं पा सकते हैं और इसके
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