SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ समयसार करने योग्य है।।१२९।। अब भेदविज्ञान कब तक भावने योग्य है? यह कहते हैं भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।१३०।। अर्थ-यह भेदविज्ञान अविच्छिन्न रूप से तब तक भावना करने योग्य है जब तक ज्ञान पर से च्युत होकर ज्ञान में स्थिर नहीं हो जाता।।१३०।। अब भेदविज्ञान ही सिद्धपद की प्राप्ति का कारण है, यह कहते हैं भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। तस्यैवाभावतो बद्धाः बद्धा ये किल केचन।।१३१।। अर्थ-जो कोई सिद्धपद को प्राप्त हुए हैं वे सब भेदविज्ञान से ही हुए हैं और जो कोई इस संसार में बँधे हैं वे सब इसी भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हैं।।१३१।। आगे संवर से कैसा ज्ञान प्राप्त होता है? यह कहते हैं मन्दाक्रान्ताछन्द भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्भाद् रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण। बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत्।। १३२।। अर्थ-भेदज्ञान की प्राप्ति से शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि हुई, शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से रागसमूह का प्रलय हुआ और रागसमूह के प्रलय से कर्मों का संवर हआ तथा कर्मों के संवर से यह ऐसा ज्ञान प्रकट हुआ जो कि परम संतोष को धारण कर रहा है, निर्मल प्रकाश से सहित है, कभी म्लान नहीं होता है, एक है, ज्ञान में स्थिर रहता है और नित्य ही उद्योतरूप रहता है। भावार्थ-अनादिकाल से यह जीव अज्ञानवश नानाप्रकार के दुःखों से आकीर्ण संसार में भ्रमता हुआ आकुलता का पात्र रहता है। परन्तु जब इस जीव का संसार अल्प रह जाता है तब पहले इसे अज्ञान का अभाव होने से स्वपर का भेदज्ञान होता है, तदनन्तर उसी का निरन्तर अभ्यास करता है, पश्चात् उस दृढ़ अभ्यास की सामर्थ्य से शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि होती है, अनन्तर उस शुद्ध आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy