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संवराधिकार
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कम्मसाभावेण य णोकम्माणं पि जायइ णिरोहो। णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होइ ।।१९२।।
(त्रिकलम्) अर्थ-सर्वज्ञ भगवान् ने उन पूर्व कथित राग-द्वेष-मोहभावों के कारण मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग- ये चार अध्यवसान कहे हैं। ज्ञानी जीव के इन हेतुओं के अभाव में नियम से आस्रव का निरोध हो जाता है, आस्रवभाव के बिना कर्म का भी निरोध हो जाता है, कर्म के निरोध से नोकर्मों का भी निरोध हो जाता है और नोकर्मों के निरोध से संसार का निरोध अनायास हो जाता है।
विशेषार्थ-जीव के जब तक आत्मा और कर्म में एकत्व का अभिप्राय है तब तक उसके मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग इन चार अध्यवसान भावों की सत्ता है। ये अध्यवसानभाव ही रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव के कारण हैं, आस्रवभाव कर्म का कारण है, कर्म नोकर्म का मूल है और नोकर्म संसार का आदि कारण है। इस प्रकार यह आत्मा निरन्तर आत्मा और कर्म में अभिन्नता के निश्चय से मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग से तन्मय आत्मा का अध्यवसाय करता है, उस अध्यवसाय से रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव की भावना करता है और रागद्वेषमोहभावों को अपने मानने से इनके द्वारा कर्म का आस्रव होता है, कर्म से नोकर्म होता है, और नोकर्म से ससार होता है। परन्तु जब आत्मा के आत्मा और कर्म का भेदविज्ञान हो जाता है तब उसके बल से शुद्ध चैतन्य चमत्कारमय आत्मा की प्राप्ति होती है, आत्मा की प्राप्ति से मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगरूप, आस्रव के हेतुभूत अध्यवसानों का अभाव होता है, इनके अभाव से रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव का अभाव हो जाता है, इन आस्रवभावों के अभाव से कर्म का अभाव हो जाता है, कर्म का अभाव होने पर नोकर्म का अभाव होता है और नोकर्म के अभाव से संसार का अभाव हो जाता है। इस प्रकार यह संवर का क्रम है।।१९०।१९१।१९२।। आगे कलशा द्वारा भेदविज्ञान की महिमा प्रकट करते हैं
उपजातिछन्द संपद्यते संवर एष साक्षात् शुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्।
स भेदविज्ञानत एव तस्मात्तद् भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्।।१२९।। अर्थ- निश्चय कर शुद्धात्मतत्त्व के उपलम्भ से साक्षात् संवर होता है और शुद्धात्मा का उपलम्भ भेदविज्ञान से होता है। इसलिये वह भेदविज्ञान निरन्तर भावना
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