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संवराधिकार
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यही भाव कलशा के द्वारा प्रकट करते हैं
मालिनीछन्द यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन
ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते। तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति।।१२७।। अर्थ- यदि यह आत्मा किसी तरह धारावाहीज्ञान के द्वारा निरन्तर शुद्ध आत्मा की उपलब्धि करता हुआ स्थित रहता है तो यह जो आत्मा में ही सब ओर से रमण कर रहा है तथा परपरिणति के रुक जाने के सो अत्यन्त शुद्ध है ऐसी आत्मा को ही प्राप्त होता है।
भावार्थ- यदि यह जीव बीच में ज्ञेयान्तर का व्यवधान न देकर निरन्तर शुद्ध आत्मा का ही ध्यान करता रहता है तो उसकी रागादिरूप परिणति नियम से छूट जाती है और उसके छूट जाने पर वह निश्चल शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है।।१२७।।
अब किस प्रकार संवर होता है? यह कहते हैंअप्पाणमप्पणा रुधिऊण दोपुण्णपावजोएसु। दंसणणाणह्मि ठिदो इच्छाविरओ य अण्णसि।।१८७।। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा। ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चेयेइ एयत्तं ।।१८८।। अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।।१८९।।
(त्रिकलम्) अर्थ-जो आत्मा आत्मा के द्वारा अपने ही आत्मा को पुण्य और पापरूप दो योगों से रोक कर दर्शन-ज्ञान में स्थिर भाव को प्राप्त हो जाता है, अन्य पदार्थों में इच्छा का त्याग कर देता है, सब परिग्रह से मुक्त होकर आत्मा के द्वारा स्वीय आत्मा का ध्यान करता है, कर्म और नोकर्म को नहीं चिन्तता है, चेतयिता होकर गुण-गुणी के विभाग से रहित एक-अखण्ड आत्मा का ही चिन्तन करता है और आत्मा का ध्यान करता हुआ जो दर्शन-ज्ञान से तन्मय तथा रागादिक
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