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कर्तृ-कर्माधिकार
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एकस्य कर्ता न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।७४।। अर्थ- एक पक्ष का कहना है कि आत्मा कर्ता है और इससे विरुद्ध पक्षवाले का कहना है कि आत्मा अकर्ता है। इस तरह एक चेतना में दो नयवालों के दो पक्ष हैं। और जो पक्षपात के जाल से च्युत तत्त्वज्ञानी हैं उनका कहना है कि इन औपाधिक भावों को त्यागकर देखा जावे तो आत्मा नित्य ही चिन्मात्र है।।७४।।
एकस्य भोक्ता न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।७५ ।। अर्थ- एक नयवाले का कहना है कि आत्मा भोक्ता है और इससे इतर पक्षवाले का यह कहना है कि आत्मा भोक्ता नहीं है। इस पद्धति से एक ही चेतना में दो नय माननेवालों के भिन्न-भिन्न तरह के दो पक्षपात हैं। परन्तु जो इन नयविकल्पों के जाल से मुक्त है वह तत्त्वज्ञानी है। उसका यह सिद्धान्त है कि चेतना तो नित्य चेतना ही है।।७५।।
एकस्य जीवो न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।७६।। अर्थ- एक नय का यह मत है कि जीव है और अन्य नय का कहना है कि जीव नहीं है। इस तरह एक ही आत्मा में दो तरह के विकल्प हैं। परन्तु जिसका पक्षपात चला गया है और तत्त्वज्ञान जिसके हो गया है उसके सिद्धान्त के अनुकूल यह दोनों ही विकल्प निचली अवस्था में हैं। परमार्थ से आत्मा तो नित्य ही चिन्मात्र है, उसका कोई काल में विघात नहीं होता।।७६।।
एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य
चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।।७७।।
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