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________________ १६४ समयसार तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया । तइया दु होदि जीवो परिणामभावाणं ।।१३६।। (पञ्चकम्) अर्थ- जीवों के जो अतत्त्वोपलब्धि (अन्यथा पदार्थ का जानना) है वह अज्ञान का उदय है अर्थात् जीवों के जब अज्ञान का उदय होता है तब उन्हें यथार्थ पदार्थ का भान नहीं होता है, इसी को विपर्ययज्ञान कहते हैं। जब जीवों के मिथ्यात्व का उदय होता है तब तत्त्वों का श्रद्धान नहीं होता है। जब असंयम का उदय होता है, उस काल में अंशमात्र भी त्याग नहीं होता, इसी का नाम अविरमण है। जब जीवों के कषायों का उदय होता है तब उपयोग कलुषित हो जाता है। जो जीवों का शुभ अथवा अशुभ, करने योग्य अथवा न करने योग्य चेष्टा का उत्साह है उसे योगों का उदय जानो। हेतुभूत, इस सब भावों के रहते हुए अर्थात् इन उक्त भावों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणारूप से आया हुआ जो द्रव्य है वह ज्ञानावरणादि भावों से आठ प्रकार का परिणमता है। कार्मणवर्गणारूप से आया हुआ द्रव्य जब जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होता है तब जीव अपने अज्ञानादि भावों का कारण होता है। विशेषार्थ- अतत्त्वोपलब्धिरूप से जीव में जो स्वाद आता है वह अज्ञान का उदय है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के जो उदय हैं वे ही कर्मबन्ध के कारण मिथ्यात्वादि अज्ञानमय चार भाव हैं। तत्त्व का श्रद्धान न होने से ज्ञान में जो अतत्त्वश्रद्धानरूप स्वाद आता है यही, मिथ्यात्व का उदय है, अविरमणभाव से जो ज्ञान में स्वाद आता है, यही असंयम का उदय है, कलुषित उपयोग रूप से ज्ञान में जो स्वाद आता है, यही कषाय का उदय है और शुभाशुभ प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप व्यापार से ज्ञान में जो स्वाद आता है, यही योग का उदय है। ये मिथ्यात्वादिक के उदयरूप चारों भाव पुद्गल के हैं तथा आगामी कर्मबन्ध के कारण हैं। इनके रहते हुए कार्मणवर्गणा के रूप में जो पुद्गलद्रव्य आता है वह ज्ञानावरणादि आठ प्रकाररूप स्वयं परिणम जाता है। वही कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीव के साथ निबद्ध होता है अर्थात् बन्धरूपता को प्राप्त होता है तब यह जीव स्वयं अज्ञान के कारण पर और आत्मा में एकत्व का अध्यासकर अपने मिथ्यात्वादिक अज्ञानमय परिणामों का हेतु होता है।।१३२-१३६।। आगे जीव का परिणाम पुद्गलद्रव्य से पृथक् ही है, यह दिखाते हैंजीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होति रागादी। एवं जीवो कम्मं च दो वि रागादिमावण्णा।।१३७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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